झूठ, अभिनय तथा पाखंड पर आधारित जीवन में कभी भी श्रद्धा व निर्भीकता उत्पन्न नहीं होती है

 

mahendra india news, new delhi
श्रीमद्भगवद् गीता के चौथे अध्याय के 39 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण जी महाराज ने उपदेशित किया है कि " श्रद्धावान लभते ज्ञानम तत्परः संयतिंद्रीय। ज्ञानम लब्धवा परम शांतियाचिरेनाधगच्छती।।" अर्थात जो व्यक्ति अपने शास्त्रों वा गुरु पर श्रद्धा रखता है, अपनी इंद्रियों को नियंत्रित रखने हेतु तत्पर रहता है वह ज्ञान की प्राप्ति करता है, उसी ज्ञान से वो परम शांति की प्राप्ति होती है अथवा परम ध्येय की प्राप्ति होती है।

यहां गुरु की सत्यता पहचानना आवश्यक है। श्रद्धा शब्द श्रत धातु से बना है जिसका अर्थ सत्य, या हृदय होता है। इस शब्द की मूल ध्वनि धा इसके साथ जुड़ती है जिसका अर्थ धारण करना है अर्थात सत्य को हृदय में धारण करना ही श्रद्धा कहलाता है। श्रद्धा एक शब्द ही नहीं है, बल्कि ये ईश्वर का आशीर्वाद है, ब्रह्मांडीय प्रशाद है। श्रद्धा हमारे सभी कर्मफलों को प्रभावित करती है, हमारे जितने भी प्रयास होते है उनके  परिणाम भी हमारी श्रद्धा पर आधारित होते है, लेकिन श्रद्धा के भाव केवल  एक निर्मल मन में उत्पन्न होते है,

यही सोलह आने सही बात है। श्रद्धा वहीं उत्पन्न होती है जहां इंद्रियों को काबू में रखने को इंसान सदैव तत्पर रहता है। श्रद्धा का भाव हृदय का वो कोना है जहां कोई मैल नहीं है, जहां को चालाकी नहीं है, जहां कोई द्वंद्व नहीं है, वहां तो केवल सादगी है, निर्मलता है, समर्पण है, सामानुभूति, कृतज्ञता व स्थिरता है। विद्यार्थियों को विद्यालयों में तथा घर में पेरेंट्स व शिक्षकों द्वारा श्रद्धा को विकसित करने के अभ्यास से अवगत कराना चाहिए। जिन लोगों के जीवन में या कृत्यों में झूठ, अभिनय या पाखंड  है, जिनका जीवन केवल दिखावे, षडयंत्र आदि में लिप्त है झूठ के खोखले आधार पर खड़ा है, उनमें श्रद्धा का जन्म ही नहीं हो सकता है, क्योंकि श्रद्धा कोई स्किल नहीं है, ये तो भाव है, ये वैल्यूज है, ये मूल्य है, ये तो किसी भी व्यक्ति की सकारात्मक वाइब्रेशन है, जो भीतर से उठती है,

जो किसी भी कार्य को करने में सहायक होती है। हम यहां कुछ चर्चा करेंगे, जिनसे हम श्रद्धा के भावों को अधिक स्पष्टता से समझ पाएंगे, मान लो हम किसी अपने खास व्यक्ति के कार्य के लिए किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से मिलने जा रहे है, या हम एक विद्यार्थी के रूप में किसी कार्य के लिए या किसी ज्ञान के अरजन के लिए अपने शिक्षक के पास जा रहे है और एक विद्यार्थी या कोई भी व्यक्ति उस स्थिति में उस महत्वपूर्ण व्यक्ति या शिक्षक की सहायता चाहता है तो क्या होगा, उस महत्वपूर्ण व्यक्ति के मिलने के उपरांत क्या उनका कार्य सम्पन्न होगा?

नहीं होगा या होगा, ये श्रद्धा पर निर्भर करता है। हो सकता है कुछ न कुछ अड़चन आए, इसे जानना अवश्य है क्योंकि जिस कार्य को कोई व्यक्ति या विद्यार्थी लेकर गए है उसका होना या न होना, केवल आपकी श्रद्धा पर आधारित होगा। अगर कार्य कराने की इच्छा लेकर गए विद्यार्थी या व्यक्ति में उनके या यूं कह सकते है कि गुरु के प्रति अकूत श्रद्धा के भाव है, श्रद्धा के वाइब्रेशन है तो उनका कार्य तुरंत और बिना किसी देरी के संपन्न हो जाएगा, और अगर विद्यार्थी या उस व्यक्ति के मन के किसी भी कोने में अश्रद्धा है, चालाकी है,

मैल है तो उनका कार्य नहीं होगा, भले ही करने वाला तथा सहयोग करने  वाला व्यक्ति पूरा जोर लगा दे, तब भी कोई न कोई अड़चन अवश्य आएगी, यही तो खेल है, यही तो ब्रह्मांडीय तरंगों का खेल है अगर विद्यार्थी के मन से निकलने वाली तरंग ने, ब्रह्मांडीय तरंगें से मेल नहीं खाई तो कोई कितना भी प्रयास कर ले, काम नहीं बनेगा। यही जीवन का खेल है। श्रद्धा का उत्पन्न होना या न होना, ये हमारी विचारधारा पर निर्भर करता है, हमारी विनम्रता व विश्वास पर निर्भर करता है। भले ही हम दिखाने के लिए कितना भी ईमानदार बनने का दिखावा कर ले,

परंतु मन से निकलने वाली तरंगें बता देती है कि तुम कितने श्रद्धावान हो या तुम कितने सत्य पर आधारित हो। जीवन में श्रद्धा का अंकुरण केवल हमारे समर्पण से होता है, हमारे भीतर से उठने वाले करुणामई भाव से होता है। जैसे एक बीज के अंकुरण के लिए सही जमीन, उचित तापमान व उचित नमी का होना आवश्यक होता है, वैसे ही श्रद्धा के बीज भी उन्हीं के हृदय में उत्पन्न होते है जहां सादगी रूपी जमीन है, समर्पण रूपी नमी है और विनम्रता रूपी तापमान की उपयुक्तता है। श्रद्धा , अंधविश्वास नहीं है और ना ही ये चालाकी है, यह दिखावा भी नहीं है, यह तो सत्य, सद्भावना, उत्साह तथा करुणा का मिलाझूला रूप है जिसे कोई व्यक्ति श्रद्धा के रूप में प्रदर्शित कर पाते है। जहां सत्य है वहीं श्रद्धा है, वही सत्य ब्रह्मांडीय शक्ति है जो ब्रह्मांडीय तरंगों से जुड़कर बेहतर परिणाम देती है, अगर हृदय में सत्य नहीं है तो उसके सकारात्मक परिणाम नहीं आयेंगे, बस यही समझने की जरूरत है।

सत्य से ही श्रद्धा का अंकुरण होता है। विद्यार्थियों में गुरु के प्रति या अपने टीचर्स या मातापिता के प्रति श्रद्धा के भाव विकसित हो, ऐसा प्रयत्न हम सभी को करने चाहिए। इसमें सबसे पहले सत्य को धारण करना पड़ेगा। कभी भी बच्चों के माध्यम से झूठ का सहारा न लें, और न ही अपने बच्चों से झूठ बोलने के लिए कहें, हां अक्सर ऐसा होता है कि विशेषकर पिता जब अपने झूठ को अपने ही बच्चों के द्वारा बुलवाने का कार्य करते है, बस यहीं से बच्चों में झूठ बोलने की वृति पैदा होती है, इससे सदैव बचना चाहिए। सभी को अपनी स्थिति खुद हैंडल करने का साहस होना चाहिए। हम अक्सर घर में छोटी छोटी गतिविधियों के माध्यम से अपने ही बच्चों को झूठ बोलना सिखाते है। आप सभी ने देखा होगा कि जब कोई फोन आ जाए तो बच्चों को बोला जाता है कि फोन उठाकर कह दो कि उनके पिता घर पर नहीं है या फिर कोई घर पर आ जाए तो भी बच्चों को कहा जाता है कि बाहर निकल कर बोल दो कि उनके पापा घर पर नहीं है,

बस यहीं से असत्य का बीजारोपण होता है। यही से न केवल असत्य का बीजारोपण होता है बल्कि अश्रद्धा का भी बीज अंकुरित होता है और आगे चल कर यही अश्रद्धा हमारे बच्चों के जीवन में झूठ, चालाकी, दिखावे की वृति पैदा करती है, यही उनके भीतर से सत्य, सद्भाव, समर्पण तथा विनम्रता के भावों को खत्म करने का कार्य करती है। इसलिए श्रद्धा के बीज सत्य को कभी मत मरने दो, विद्यार्थियों को सत्य बोलने के लिए प्रेरित करें, ताकि उनके जीवन में श्रद्धा के बीज का अंकुरण हो सकें। यहां एक विमर्श और करना है कि श्रद्धा से ही विद्यार्थियों के जीवन में कृतज्ञता का जन्म होता है, यही कृतज्ञता आगे चल कर श्रद्धा के साथ मिलकर व्यक्तित्व का निर्माण करती है। आओ सभी मिलकर भारतीय बच्चों में श्रद्धा के लिए सत्य को स्थापित करें, जिससे उनकी मेहनत कभी असफल न हो, उन्हें उनके परिश्रम के बेहतर परिणाम मिले।
जय हिंद, वंदे मातरम
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर