किसी शादी में जा रहे हो तो पैसा वसूली के लिए नहीं, अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर की खाएं
mahendra india news, new delhi
जीवन रहेगा तो एक नहीं हजार शादियों में खा पाओगे, अगर जीवन ही नहीं रहा तो एक शादी के कन्यादान को भी वसूल नहीं कर पाओगे। लोग अक्सर शादी विवाह में जो शगुन का लिफाफा देते है उसमें रखे रुपए को ध्यान में रखकर भोजन करने की चेष्टा करते है, उन्हें ये ख्याल ही नहीं रहता है कि उनकी सेहत के लिए क्या जरूरी है और उनके लिए क्या ना खाने योग्य है, परंतु उन्हें लिफाफे में रखे रुपए उन्हें कई बार कुछ भी खाने को प्रेरित करते है। दोस्तों, शादी विवाह या कोई भी फंक्शन जिसमें हम जाते है वो हमारे रिश्तेदार होते है, या मित्रगण होते है या फिर पारिवारिक रिश्ते में होते है,
उन्ही फंक्शन में हमे बुलाया जाता है। ऐसे अवसर पर कुछ महानुभाव तो इस लिए नहीं जाते है क्योंकि वहां शगुन देना पड़ेगा,और कुछ लोग इस लिए जाते है कि कम देने पर भी अधिक खाने को मिलेगा, और कुछ महानुभाव इसलिए जाते है कि मजबूरी में जाना भी है व मजबूरी में शगुन भी डालना है तो फिर वो सोचते है कि जितना दिया है उतना वसूल करके ही घर जाएं। इसके चक्कर में वो विरुद्ध भोजन करने से भी नहीं चूकते है, गोल गप्पे खायेंगे, खीर भी खाएंगे, फिर खट्टी चटनी वाले दही भले भी खाने से नहीं चुकेंगे, उसके साथ ही आईस क्रीम भी दो दो बार डलवा कर खायेंगे, उसके बाद लगे हाथ मलाई वाले दूध में भी हाथ आजमाएंगे। इसके बाद फिर स्वीट डिश की ओर लपकते है,
जहां गुलाब जामुन, फिर जलेबी, फिर गाजर का हलवा और फिर लड्डुओं को भी नहीं छोड़ते है, अगर पनीर की तरफ जाएंगे तो अपनी प्लेट में केवल पनीर के टुकड़े ही छांटकर भरते है, जिससे उस सप्लाई डोंगे में तरी तरी नीचे बचती है। उसके बाद चलते चलते एक एक कॉफी भी हो जाए, ये कहकर कॉफी भी पीते है। कुछ लोग तो प्लेट भर भर कर केवल खाते ही नहीं है, बल्कि डस्टबिन में फेंकते भी है, पूरी पूरी मिस्सी रोटी, जलेबी, गर्म गर्म गुलाब जामुन को भी ऐसे डस्टबिन में फेंकते है जैसे उन्हें किसी प्रकार की चेतना ही नहीं है, प्लेट ऐसे भरते है, जैसे उन्होंने पहली बार ये सब देखा हो।
कुछ महानुभाव तो इतना खाना डालते है कि जिस टेबल पर बैठकर खाते है वहीं पर भरी की भरी हुई अपने आधे खाने की उन प्लेट्स में ही छोड़कर चलते बनते है, वो दृश्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे यहां कोई कुश्ती लड़ी गई हो। वैसे भी हमारे यहां जिस पंडाल में शादी विवाह फंक्शन होते है, उसका दृश्य सुबह देखने लायक होता है, लगता है जैसे कूड़ादान हो। दोस्तों, तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है कि " अन्नम ब्रह्मोती व्याजनात" अर्थात अन्न ही ब्रह्म है, अन्न ही परमात्मा है जिसे प्राप्त करने से तृप्ति मिलती है। इसी से जीवन रूपी ऊर्जा मिलती है। जिस व्यक्ति ने यह महावाक्य समझ लिया, वह तो कभी भी भोजन को कूड़ेदान में डालने की हिम्मत नहीं करेंगे,वह तो ऊर्जा देने वाला, तृप्ति देने वाले अन्न को कूड़ेदान में नहीं डालेंगे।
जीवन ना तो भोजन को ठूंसने के लिए है, न ही किसी शगुन के बदले भोजन के रूप में वसूली करने के लिए बना है, और न ही बिना जरूरत के खाने के लिए बना है। हां सबकुछ टेस्ट जरूर करो लेकिन उसे प्लेट भर भर के ठूंसों मत, क्योंकि इतनी हमे जरूरत नहीं होती है। लोभवश, नियतवश अधिक खाने की वृत्ति को छोड़ना होगा, अन्यथा अधिक खाने के कारण ही किसी दिन दुनिया छोड़नी पड़ सकती है। कहते है कि कम खाने वाला कभी नहीं मारता है, हां अधिक खाने वाला जल्दी मरता है, इसलिए ज्यादा खाने से जीवन गंवाने की बजाय जरूरतमंदों के भी लिए कुछ छोड़ दो, ताकि सभी का जीवन चल सकें। इस धरती पर सभी संसाधन करोड़ों वर्षों के लिए बने है लेकिन कुछ लोग इनका दोहन ऐसे करते है जैसे उनकी ये लास्ट पीढ़ी हो और इसके बाद सब कुछ खत्म होने जा रहा है, इसके बाद न तो भोजन की जरूरत होगी,
न इस भूमि की जरूरत होगी, ना ही इसके बाद पहाड़ पर्वतों की जरूरत होगी, न ही किसी नदी की जरूरत होगी, और न ही किसी वन जंगल पेड़ पौधों की जरूरत होगी। मै कई बात सोचता हूं अगर यही लोभ की वृति हमारे पूर्वजों में होती तो आज जो हम सांस ले रहे है तो ये स्थिति भी नई होती। आजकल लोगों के जीवन जीने के ढंग को देखकर ऐसा लगता है जैसे इन्होंने सब कुछ अपनी ही पीढ़ी में खत्म करने की ठान ली है, धरती को अन्न पैदा करने लायक भी छोड़ा जाएगा या नहीं, इस धरती के पानी को पीने लायक छोड़ा जाएगा भी या नहीं, इस धरती को इसकी उर्वरक क्षमता के लायक भी छोड़ा जाएगा या नहीं, हर कोई यह सोच कर बैठा है कि सभी कुछ उनके पास ही हो, तभी संतुष्टि मिलेगी। यहां भोजन से लेकर जीवन में उपयोग होने वाली हर वस्तु की चर्चा हो रही है क्योंकि इस धरा पर जीवन तब तक ही है, जब तक जरूरी संसाधन जिंदे है, तभी तक है जब तक संसाधनों का संरक्षण है, तभी तक है जब तक संसाधनों की रखवाली है। प्रिय युवा दोस्तों, ये मां भारती जरूरत के लिए तो सभी कुछ दे सकती है लेकिन बिना जरूरत के वस्तुओं की पूर्ति न तो की जा सकती है और ना ही ये अधिक वर्षों तक चल पाएगी।
हम सभी को अपने जीवन में किफायती जीवनशैली का बोध होना चाहिए, हम सभी को अपनी जरुरते कम करनी होगी, क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति, हमारी भारतीय संस्कृति तो त्याग के साथ जीवन जीने की शिक्षा देती है इसी लिए तो ईशावास्यम उपनिषद के पहले सूत्र में कहा गया है कि " ईशावास्यमिद्म सर्वम यतकींच जगत्याम जगत। तैनतकयेन भुंजीथा मा गृद्ध कस्य स्विधनम।।" अर्थात जड़ चेतन वाली यह सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। सभी को त्याग के साथ ही भोग की वृत्ति के साथ ही वस्तुओं का आवश्यकता अनुसार उपयोग करना चाहिए, यह भी विचार करना चाहिए कि ये मेरा नहीं है का भाव भी विकसित करना होगा,
तभी सभी का जीवन चलता है। इस भाव का आरंभ हमारे छोटे से विचार पर निर्भर करता है कि हम अपनी थाली में कितना डालते है, क्या क्या डालते है, और दूसरों का कितना ख्याल रखते है, दूसरों के लिए उनका हिस्सा कितना छोड़ते है वा क्या क्या छोड़ते है। अगर बांट कर खाने की आदत होगी तभी हम राष्ट्र को विकसित करने के यज्ञ में अपनी आहुति डाल सकते है
अन्यथा शब्दों को अभिव्यक्त करने के सिवाय कुछ होगा नहीं, क्योंकि राष्ट्र विकसित सभी नागरिकों के सहयोग से ही होगा, कुछ लोगों से नहीं। कुछ लोग शादी विवाहों में भी अपने शगुन में दिए गए रुपयों से भी अधिक खाकर वसूल करना चाहते है तो फिर ऐसे लोग तो क्या ही राष्ट्र को विकसित करने का विमर्श करेंगे। अपनी जीवन शैली बदले, अपने विचार बदलें, अपने लालच लोभ को त्यागकर ही हम सबका कल्याण कर पाएंगे और राष्ट्र को विकसित कर पाएंगे।
जय हिंद, वंदे मातरम
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट काउंसलर