विद्यार्थियों को जीवन ऊर्जा के लिए 7 चक्रों ऊर्जा सिद्धांत का ज्ञान तथा अभ्यास कराने की जरूरत है

 
Students need to be given knowledge and practice of 7 Chakras Energy Theory for life energy
 

mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
विवेक किसी किताब के पढ़ने से नहीं आता है, समझ किसी पुस्तक में पढ़ने को नहीं मिलती है। विवेक व समझ मौन से उत्पन्न होता है। विवेक अभ्यास का विषय है, पुस्तकों के किसी भी अध्याय या पन्ने में अंडरस्टैंडिंग व विवेक नहीं मिलेगा। पुस्तकों में केवल जानकारियां मिलती है। ज्ञान सूक्ष्म है, विवेक सूक्ष्म है, जिसे देखा नहीं जा सकता है, बुद्धि में तेज होने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि वह विवेकशील भी हो।

जीवन में जो चीज दिखती है वो सूक्ष्म नहीं है, वह भौतिक है, उसे छुआ तो जा सकता है, महसूस किया जा सकता है लेकिन एहसास नहीं किया जा सकता है और जो सूक्ष्म है वो दिखता तो नहीं है परंतु उसे ही भीतरी प्रकाश से देखा जाता है। जो महत्वपूर्ण है वो दिखता नहीं है, उसका एहसास होता है, वो जीवन देता है। जैसे प्राण दिखता नहीं है परंतु जीवन का आधार है, प्रेम दिखता नहीं है लेकिन वहीं करुणा है, संवेदना है, सामानुभूति है, वही जीवन के भाव तय करता है। हम बच्चों को शारीरिक रूप से तो स्वस्थ रहना सिखाते है, व्यायाम करना सिखाते है, लेकिन जीवन में प्राणों को सशक्त वा शक्तिशाली बनाने के तरीके नहीं बताते है इसका कारण यही है कि न तो कोई मातापिता इसे जानते है और न ही विद्यालयों, महाविद्यालयों में कोई टीचर इस क्रिया को जानते है।

भौतिक तरीकों से हम अपने विद्यार्थी रूपी बच्चों को व्यायाम, पौष्टिक भोजन से शारीरिक रूप से तो बलशाली बना सकते है परंतु उनमें आत्मबल व आत्मविश्वास विकसित नहीं कर पाते है। ध्यान की क्रिया कभी सिखाई ही नहीं गई, ध्यान ही संपूर्णता को जन्म देता है, संपूर्णता ही समर्पण को जन्म देता है और समर्पण ही प्रेम या स्नेह हो जन्म देता है, प्रेम वहीं है जहां संपूर्णता है। हम अपने बच्चों को विनम्रता सिखाने की कोशिश तो जिंदगी भर करते है लेकिन हमारे पास ऐसी कोई स्किल ही नहीं है, हम बच्चों को क्रोध व उग्रता से छुटकारा दिलाना चाहते है परंतु हमारे पास उसका ज्ञान ही नहीं है।

हमने खुद भी कभी इन विषयों पर कार्य नहीं किया है, हमने खुद भी विनम्रता, त्याग, तप, संपूर्णता के भाव सीखने की कभी कौशिश ही नहीं की है। हम सदैव मांगने में लगे रहते है, अपने हाथ सभी के सामने पसार कर रखते है और सोचते है कि सब कुछ हमे ही मिल जाए, चाहे वो हमारे किसी काम भी ना हो, फिर भी हम केवल मांगने का ही काम करते है। देने का भाव तभी विकसित होता है जब हम भीतर से संपूर्ण है, समर्पित है, प्रेम के भाव है तभी हमारा जीवन दूसरे के काम आता है, तभी हमारा जीवन राष्ट्र व समाज के काम आता है।

हमारा स्वार्थ तभी परमार्थ में बदल सकता है, जब हम भीतर से संपूर्ण बनते है। यहां मैं समाज राष्ट्र की बात इस लिए कर रहा हूँ क्योंकि समाज और राष्ट्र ही ईश्वरीय स्वरूप में हम सभी के सामने है। अब हम बिना समय गवाएं उन महत्वपूर्ण विषय पर विमर्श करते है, जिनके बारे में हमारे महर्षियों ने सात चक्रों के रूप में बताया है जो हमारे बच्चों के जीवन को सूक्ष्म रूप से विकसित करते है। जो हमे दिखते तो नहीं है उसी को विकसित करने का कार्य करते है।

अगर हमे अपनी भावी पीढ़ी को सशक्त बनाना है तो इन सात चक्रों को विकसित करने पर कार्य करने का ज्ञान व अभ्यास पर जोर देना होगा। अगर सात चक्रों के विषय में समझना है और जानना है तो उनके विषय में विद्यालयों में पढ़ाना चाहिए तथा अभ्यास कराना चाहिए। सात चक्रों में पहला चक्र मूलाधार चक्र है जो हमारी गुदा तथा जननांगों के बीच स्थिति है, जिससे हमारी कामवासना, लोभ मोह, क्रोध, रग द्वेष संचालित होते है। मूलाधार चक्र से ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र, जो जननांगों और नाभि के बीच में स्थित है।

तीसरा चक्र मणिपुर चक्र जो हमारी नाभि के पीछे स्थित होता है, इसी का चक्र कहा जाता है, इसको विकसित करने से ही निर्भीकता का जन्म होता है। चौथा चक्र अनाहत चक्र, जिसे हम हृदय चक्र भी कहते है, जिसे प्रेम चक्र भी कहते है,  जो हृदय में स्थित है, जहां से प्रेम स्नेह विकसित होता है। पांचवां चक्र विशुद्ध चक्र है, जो हमारे कंठ के गढ़े में स्थित है, जिसे हम कंठ चक्र भी कहते है, यहीं से हमारी वाणी प्रभावित बनती है, जो बोला जाए वो पूरा हो जाए, इसी चक्र की देन है। छठा चक्र आज्ञा चक्र है जो दोनों भौंहों के बीच स्थित है उसे ही हम वाराणसी बोलते है, वाराणसी में प्राण त्यागने का अर्थ यही है कि दोनों भौंहों के बीच ध्यान केंद्रित करके प्राणों को त्यागना ही वाराणसी में प्राण त्याग होता है,

उसे ही ध्यान का केंद्र बोला जाता है। सातवां चक्र सहस्त्र चक्र है जो हमारे सिर पर स्थित है, यह वही है जिसे छुओ तो सदैव गर्म रहता है, यह वही है जो धड़कता रहता है। इन सातों चक्रों को विकसित करने की शिक्षा तथा अभ्यास कराने से ही इंसान मानव बन पाता है, अन्यथा वह मूलाधार पर रहकर ही पूरा जिन गुजार देता है, अर्थात वहीं मूलाधार जिसमें हर पशु पक्षी व सभी जीव जीते है, इंसानी जीवन होते हुए भी उसी पर पशु की तरह ही जीवन जीते है, वही भूख, वही प्यास , वही नींद और वही कामवासना, वही मैथुन अथवा हस्तमैथुन, पूरा जीवन उसी में गुजर जाता है। वहीं पशु वृत्ति, वही लोभ, मोह, वही लालच, राग द्वेष, वही संग्रह की वृति, वही असत्यता, मन का भटकाव, वही अवसाद, वही दुख, वही चिंता , वही डर और वही बेईमानी की वृति जीवन को ह्रास की ओर लेकर जाती है।

हम सभी को मूलाधार चक्र से ऊपर उठने के उपाय करने चाहिए, उनका अभ्यास करके, अपने सभी चक्रों को जागृत करने की आवश्यकता है जिसे हम कुंडलिनी जागृत करना भी बोलते है। हमे सभी प्रकार की असुर संपदाओं तथा पशु वृत्तियों से ऊपर उठने के लिए मूलाधार चक्र को छोड़ना होगा। इसके लिए अपने सांसों पर ध्यान केंद्रित करके प्राणायाम का सहारा लेकर सांसों को गहरा करने का अभ्यास करने की जरूरत है।

इसके लिए सांस को भीतर खींचकर कुंभक के साथ ही मूलबंध लगाने का अभ्यास करने से धीरे धीरे मूलाधार चक्र को साधने में सक्षम बन जाएंगे। इसी प्रकार जिस भी चक्र पर ध्यान करेंगे, उसे साधने में कामयाब होंगे। हर घर व स्कूल में विद्यार्थियों के लिए अलग  अलग सातों चक्र की जागृति के लिए  कुछ आसनों का सहारा भी लिया जाता है जैसे ताड़ासन पूरे शरीर को संतुलित करने के लिए आवश्यक है, इससे रीढ़ सीधी होती है। सर्वांगासन से अनाहत वा विशुद्ध चक्र जागृत होता है, इसी प्रकार भुजंगासन व धनुरासन से मणिपुर चक्र जागृति में सहायक होते है।

पद्मासन लगाकर अर्ध खुली आंखों में दोनों पुतलियों को दोनों भौंहों के मध्य ध्यान केंद्रित कर प्राणायाम के माध्यम से तथा ओम के लगातार उच्चारण से आज्ञा चक्र अर्थात थर्ड आई जागृति में सहायता मिलती है। स्वांस खींचकर कुंभक व मूलबंध लगाने के अभ्यास से मूलाधार चक्र उत्तेजित होता है। इसी प्रकार सहस्त्र चक्र के लिए दोनों भौंहों के बीच ध्यान केंद्रित करके ओम के गुंजन से सहस्त्र स्थल की यात्रा की जाती है, एक समय ऐसा आता है कि धीरे धीरे ओम के गुंजन  का भी विलोप होने लगता है और समाधि की अवस्था में प्रवेश किया जाता है। यहां समाधि शब्द को समझने की जरूरत है, समाधि शब्द को कोई साधु संतों का शब्द मत मान लेना, यहां समाधि का अर्थ और विशेषकर विद्यार्थियों के लिए समाधि का अर्थ सब प्रकार की आसुरी संपदाओं से मुक्त होना है, यहां पहुंचकर किसी व्यक्ति को भी किसी भी प्रकार की कामवासना, नशा, झूठा दिखावा, पियर प्रेशर, संगत का असर, लोभ मोह, क्रोध या किसी भी प्रकार की उग्रता से मुक्ति मिल जाती है।

यहां ज्ञान का प्रकाश ही प्रकाश होता है, एकदम उजियारा ही उजियारा, जहां स्मृति उच्च स्तर की होती है, कोई वासना परेशान नहीं करती है। शरीर की भीतरी ऊर्जा सकारात्मक दिशा में काम करती है, जिससे विद्यार्थियों को जीवन का अर्थ समझ में आता है। ऐसी अवस्था में पहुंचने के उपरांत कोई भी समाज व राष्ट्र को अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ सेवा प्रदान करता है, अगर वो चिकित्सक बनते है तो बेहतरीन व ईमानदारी से कार्य करने वाले बनते है, उनमें सेवा का भाव सर्वोपरि होता है, अगर वो इंजीनियर बनते है तो उसके बनाए पुल सौ साल से अधिक चलेंगे, अगर टीचर्स बनते है तो देश के लिए ईमानदारी से बेहतर भविष्य के रूप में स्टूडेंट तैयार करते है, अगर ब्यूरोक्रेट्स बनते है तो ईमानदार व जवाबदेही से कार्य करते है, अगर राजनेता बनते है तो देश के लिए बेहतर नीतियां तैयार करते है, बिना किसी पक्षपात के न्याय के साथ कार्य करते है, किसी भी पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए कार्य करते है।

अगर कोई किसान बनते है, पशु पालक बनते है तो जहरमुक्त खेती, व बिना मिलावट के दुग्ध वा दूध से बनी हुई खाद्य सामग्री उपलब्ध कराते है, अगर सामाजिक नेता बनते है तो समाज के ताने बाने के सशक्तिकरण के लिए कार्य करते है, तभी राष्ट्र उत्थान होता है और तभी राष्ट्र विकसित होता है। हम सभी को एक नारे का ध्यान अवश्य रखना है जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे है कि" आज के बच्चे कल के नेता होंगे" अर्थात आज जिन बच्चों को हम स्कूल कॉलेज में देख रहे है वो ही देश को विभिन्न पदों पर बैठकर संभालेंगे, इसलिए इन बच्चों को जीवन के सूक्ष्म सात चक्रों के माध्यम से विकसित करने के लिए हर मातापिता और हर टीचर को तैयार होना होगा। हर स्कूल के मुखिया या स्कूल संचालकों को इस पवित्र कार्य के लिए संकल्प लेना होगा।
जय हिंद, वंदे मातरम