देव सोवनी, भड़लिया नवमी, तथा देव उठनी एकादशी का सिंबॉलिक अर्थ क्या है, इसे समझने की जरूरत
mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ डेवलपमेंट मेंटर
ने आज अपने लेख में बताया है कि हम वर्षों से ग्रामीण क्षेत्र में अपने बुजुर्गो से सुनते आ रहे है कि अब शादी या विवाह के मुहूर्त नही निकल सकते है क्योंकि अब तो देव सो गए हैं। हमारी सभी परंपराएं वैज्ञानिक आधार पर आधार पर स्थापित हो गई है, हम अपने सनातन धर्म तथा संस्कृति में चार महीनों में विवाह आदि के कार्यक्रम आयोजित नही करते हैं, इन सबका वैज्ञानिक आधार हैं। हम अपने बचपन से ये परंपराएं देखते आ रहे हैं और यही देखने को मिलता है कि हमारे ग्रामीण परिवेश में अधिकतर लोग भडलिया नवमी से लेकर देव उठनी एकादशी तक कोई भी शादी विवाह के कार्यक्रम संपन्न नही करते हैं।
उन्होंने बताया कि हमारी सनातन संस्कृति को पौराणिक व्यवस्थाओं में आसान तरीकों से इस ज्ञान को समझाने का प्रयास किया गया है। देव शयन का "साइंस ऑफ़ सिंबॉलिज्म" का क्या अर्थ रखता है, हमे इसके माध्यम से क्या समझाने की कौशिश की गई है। हम तो बस यही समझते है कि अब देव सो गए है, अब शादी नही होगी। बिना समझ के कारण लोगों ने अब मर्यादा को तोड़ना शुरू कर दिया है और बिना सोचे समझे शादी विवाह करना शुरू कर दिया, भले ही कोई कितनी भी परेशानी झेले। भारतीय क्लाइमैटिक कंडीशन में वर्षा के चार माह चौमासा के रूप में विभिन्न रूपों में सेलिब्रेट किया जाता है।
इसे सनातन संस्कृति में ही नही बल्कि जैन धर्म में भी सभी मुनि एक स्थान पर रुक कर आमजन की जागरूकता के लिए प्रवचन करते है और इसलिए भ्रमण नही करते। क्योंकि इन चारों महीनो में बरसात अधिक होती है, जमीन के भीतर से छोटे छोटे जीव बहार निकल आते है, इन्ही के जीवन को बचाने के लिए भ्रमण आदि का त्याग करते हैं। हमारी सनातन धर्म में कहा जाता है कि देव यानी हरि अथवा विष्णु भगवान समुंद्र में शेष पर शयन करते हैं, इसे सिंबल के रूप में समझाया गया है कि विष्णु अर्थात आदित्य या सूर्य को कहा जाता है जो जगत का पालन करता है। आप सभी ने सुना होगा, हमारी संस्कृति में 12 आदित्यो का जिक्र किया गया है, जिसका सीधा सा अर्थ है कि हर माह का अलग सूर्य अर्थात सूर्य भगवान का रूप हर महीने में अलग होता है।
जैसे पोह माघ की सर्दी में सूर्य का रूप अलग होता है तथा बैशाख तथा ज्येष्ठ के सूर्य का रूप अलग होता है। माह आषाढ़ की नवमी से लेकर कार्तिक की एकादशी तक विष्णु भगवान अर्थात सूर्य शयन करने चले जाते है, जिसका अर्थ है इन महीनो में वर्षा होती , खूब बादल होते है, बदल घुमड़ते है, बिजली चमकती है और काले काले बादलों से खूब वर्षा करते हैं, और कभी भी बरसात हो जाती है। इसलिए कहा जाता है कि भगवान विष्णु समुंद्र में सोने चले जाते है अर्थात आदित्य यानी सूर्य बादलों में छुप जाता है। यहां बादलों को ही समुद्र बोला गया है। बादल इतने गहरे होते है कि सूर्य देवता निकल ही नही पाता है। मौसम, इन चार महीनों में खराब रहता है चारों तरफ पानी ही पानी तथा किसी भी समय बरसात होने के कारण, हम अपने शादी विवाह के कार्यक्रमों को चार महीने के लिए टाल देते है। बरसात के कारण चारो ओर गीला ही गीला होता है, वर्षा के कारण सभी व्यवस्थाएं बिगड़ जाती हैं। जब सूर्य देवता बादलों में छिप जाते है तो इसे सिंबल के द्वारा समझाया जाता है कि अब देव यानी हरि सो गए है। इसलिए हम अपने सभी शुभ कार्य देव अर्थात विष्णु भगवान के उठने पर यानी बादलों से सूर्य देवता के निकलने पर ही कार्यक्रम संपन्न करेंगे। ये साइंस ऑफ़ सिंबॉलिज्म है जिसे समझना आवश्यक है, कुछ लोग विज्ञान नही समझ सकते है तो उन्हे भगवान के नाम से समझाया जाता हैं। इसलिए इन चार माह को वर्षा ऋतु के कारण छोड़ने के लिए देव सोने वाली एकादशी तथा देव उठनी एकादशी के रूप में मना कर आमजन को समझाने का प्रयास किया गया है। ऐसे भगवान कभी नही सोते है, ये तो पूरे जगत के पालनहार है सूर्य देवता, उनकी ऊर्जा बादलों के कारण कम हो जाती है। कपड़े नही सूखते है, बरसात ज्यादा होती है, रास्ते रूक जाते है, सारा ईंधन गिला हो जाता है, किसी भी समय वर्षा से कार्यक्रमों में विघ्न आ जाता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में कठिनाई होती है, इसी लिए इन चार महीनों में हम अपने सभी शादी विवाह आदि पर पाबंदी रखते है और श्री हरि के सोने के नाम पर लोगों को समझाने का प्रयास करते हैं। मेरा ऐसा मत है कि हमे अपनी किसी भी परम्परा को ऐसे ही नकारने से अच्छा है कि हम अपने पौराणिक प्रतीकात्मक विज्ञान को समझने की कौशिश करें। उसी अनुरूप हमे व्यवहार करना चाहिए, अंधविश्वासी ना बने, पाखंड ना करे, केवल विज्ञान को समझने का प्रयास करें। भले ही आज कल इस समय वर्षा काम होती हो, लेकिन होती तो है ही, और कभी भी हो सकती हैं। आओ मिलकर अपनी सभी परम्पराओं पर गर्व करें।
जय हिंद, वंदे मातरम