श्रीकृष्ण रास और रण में संपूर्ण व्यक्तित्व
mahendra india news, new delhi
श्रीकृष्ण चाहे रास में विराजमान हों अथवा रणभूमि में, उनका व्यक्तित्व सर्वथा संपूर्ण, संतुलित एवं सम्यक है। यही वह आदर्श है, जिसका अभ्यास विद्यार्थियों को अपने जीवन में करना चाहिए।
यह कहना संभव नहीं कि हममें से कोई श्रीकृष्ण के स्तर तक पहुँच सकेगा, किंतु यह अवश्य आवश्यक है कि जिन श्रीकृष्ण की हम उपासना करते हैं, उनके व्यक्तित्व की विराटता को समझने का प्रयास करें। जनमानस में उनके अनेक रूप प्रचलित हैं—कहीं वे माखनचोर हैं, कहीं रणछोड़; कहीं मुरलीधर हैं, तो कहीं सुदर्शनधारी। कोई उन्हें एक उँगली पर गिरिराज पर्वत उठाने वाला मानता है, तो कोई महाभारत के सूत्रधार के रूप में देखता है। सामान्य जन उन्हें रसिक, नृत्यप्रिय एवं आनंदमय स्वरूप में भी देखता है। साथ ही वे अर्जुन के सारथी हैं, एक अद्वितीय रणनीतिकार हैं।
इन सभी रूपों का समन्वय ही उनके विराट व्यक्तित्व को प्रकट करता है। श्रीकृष्ण ने जीवन को प्रत्येक आयाम में संपूर्णता, समर्पण एवं त्याग के साथ जिया। चाहे उन्हें जिस भी रूप में देखा जाए, उनका व्यक्तित्व अखंड और पूर्ण ही दृष्टिगोचर होता है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में उनके विविध रूप प्रतीक बनकर हमें शिक्षा प्रदान करते हैं। एक नर्तक उनसे नृत्य की श्रेष्ठता सीखता है, नीति-निर्माता उनसे नीति और कूटनीति की कला ग्रहण करता है, बांसुरी वादक उनसे संगीत की मधुरता सीखता है और गुरु या मार्गदर्शक उनके सारथी-रूप से नेतृत्व एवं संरक्षण की प्रेरणा प्राप्त करता है।
यहाँ उनके तीन ऐसे प्रतीकात्मक रूपों पर विचार करना समीचीन होगा, जो हमें गहन शिक्षा प्रदान करते हैं।
प्रथम प्रतीक—माखन की बिलोवणी के पास बैठे श्रीकृष्ण। यह रूप हमें स्नेह, कोमलता और माधुर्य का संदेश देता है। माखन को स्नेहिल कहा गया है—जिसमें कठोरता या घर्षण नहीं होता। यह प्रतीक सिखाता है कि हमें अपने व्यवहार में सौम्यता, सरलता और प्रेम का अभ्यास करना चाहिए। जब व्यक्तित्व में स्नेह समाहित होता है, तब वह विशाल और समावेशी बनता है।
द्वितीय प्रतीक—रास। रास को प्रायः केवल नृत्य समझ लिया जाता है, किंतु वास्तव में यह असीमता का प्रतीक है—एक ऐसा आनंद-वृत्त, जिसका न आदि है न अंत। ‘रास’ शब्द ‘लस्’ धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है चमकना, दीप्त होना, ज्ञान से उज्ज्वल होना। ब्रज-भाषा में ‘ल’ का उच्चारण ‘र’ के रूप में होने से ‘लास’ से ‘रास’ बना। ‘रसिया’ वह है, जिसके व्यक्तित्व में ज्ञान की ज्योति हो, जो दूसरों के आत्मिक उत्थान का कारण बने। अतः रास का तात्पर्य केवल नृत्य नहीं, अपितु ज्ञान और आनंद की असीम अनुभूति है।
तृतीय प्रतीक—बांसुरीधारी श्रीकृष्ण। इस रूप में उनके साथ निर्भय पक्षी दिखाई देते हैं। यह हमें प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करने की प्रेरणा देता है। जहाँ प्रेम और माधुर्य होता है, वहीं प्रकृति प्रसन्न होकर खिल उठती है। बांसुरी प्रेम का प्रतीक है—निष्कपट, अविभाज्य और सर्वव्यापी। उसकी मधुर तान समस्त प्राणियों को सहज और निर्भय बना देती है। श्रीकृष्ण और श्रीराधा का प्रेम यह दर्शाता है कि जीवन की गति काम से नहीं, प्रेम से संचालित होती है।
श्रीराधा, श्रीकृष्ण के स्नेह और भाव का स्वरूप हैं। ‘राधा’ शब्द ‘आराधना’ से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है भक्ति, उपासना और तादात्म्य। जहाँ प्रेम होता है, वहीं स्थायित्व, विश्वास, आस्था और प्रज्ञा निवास करती है। जीवन न तो अहंकार से चलता है, न कठोरता से, न अज्ञान से—जीवन का आधार प्रेम और स्नेह है।
इसी कारण श्रीकृष्ण को चौंसठ कलाओं में निपुण माना गया है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जहाँ उनका प्रभाव न हो। रास के प्रतीक के रूप में उनका व्यक्तित्व असीम है। रास जीवन का वह उज्ज्वल पक्ष है, जिसमें ज्ञान और आनंद का समन्वय होता है और जिससे दुःख, तनाव तथा क्लेश दूर हो जाते हैं। रास ध्यान और ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है।
आज के विद्यार्थी और सामान्य जन यदि इन प्रतीकों के अर्थ को समझकर अपने जीवन में उतारें, तो उनका व्यक्तित्व समग्र रूप से विकसित हो सकता है। रणभूमि में भी श्रीकृष्ण के मुख पर स्थिर मुस्कान है, बांसुरी-वादन में भी अंतःकरण में आनंद और संतुलन है, माखन की बिलोवणी के पास भी वे स्नेह का संदेश देते हैं। गिरिराज उठाने की कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन की किसी भी बड़ी समस्या से पलायन नहीं, उसका समाधान करना चाहिए।
सारथी के रूप में श्रीकृष्ण युवाओं को समाज का मार्गदर्शक बनने की प्रेरणा देते हैं—संरक्षण, सहयोग, प्रोत्साहन और प्रेरणा प्रदान करने की शिक्षा देते हैं। सुदर्शन चक्र यह संकेत करता है कि आवश्यकता पड़ने पर धर्म, कर्तव्य और नैतिकता की रक्षा हेतु दृढ़ निर्णय लेना भी आवश्यक है।
इस प्रकार श्रीकृष्ण समस्त जीवों के लिए प्रेरणा-स्वरूप हैं। किंतु उनसे सीखने के लिए विवेक, ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक है। विद्यार्थी, नागरिक, शिक्षक, माता-पिता या समाज के किसी भी क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति—यदि इन प्रतीकों को अपने जीवन में आत्मसात करे और निरंतर अभ्यास करे, तो वह पाखंड और भ्रम से मुक्त हो सकता है। श्रीकृष्ण इस धरती पर युगपुरुष के रूप में आज भी समस्त मानवता का पथप्रदर्शन कर रहे हैं।
जय हिंद। वंदे मातरम्।
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एम्पावरमेंट मेंटर
