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क्षुद्र , वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण एक ही इंसान के विकास के सोपान है, कोई अलग अलग नहीं है

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Shudra, Vaishya, Kshatriya and Brahmin are the stages of development of the same human being, none are different

mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी 
यूथ एंपावरमेंट काउंसलर
कोई भी इंसान अपनी वृत्ति व प्रकृति से अलग अलग कार्य करने को विवश होते है, या फिर जैसी उसकी संगत होती है, जैसा वो अपने जीवन में देखते है वैसा ही कुछ बनने के प्रयास भी करते है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त त्रिगुणी वृति को अपने ज्ञान से श्रेष्ठ किया जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज द्वारा बहुत ही स्पष्टता से कहा गया है कि ये ह्यूमन डेवलपमेंट के स्टेप्स है। जब व्यक्ति पैदा होता है तो सभी बिना कुशलता के ही होते है, जिसे हम क्षुद्र या शूद्र अवस्था कहते है। श्रीकृष्ण जी महाराज ने यही स्पष्ट किया है कि हर इंसान की स्थिति उनके कर्म के गुण के आधार पर ही तय की जाती है।

यहां किसी जाति का बिल्कुल भी जिक्र नहीं है और न ही क्षुद्र कोई जाति है, न ही वैश्य कोई जाति है, न ही क्षत्रिय अलग से कोई जाति है और इसी प्रकार ब्राह्मण भी कोई जाति नहीं है, यहां ब्राह्मण का अर्थ ब्रह्म को जानने वाले को कहा गया है अर्थात जो मनुष्यता के सर्वोच्च्य स्तर पर पहुंच जाते है या जो एब्सोल्यूट को प्राप्त कर लेते है, उसे ही ब्राह्मण कहा जाता है। ये सभी, गुणों के आधार पर टाइटल्स है, या सीधी भाषा में इन्हें पद भी कहा जा सकता है,

जैसे कोई जब नौकरी लगता है तो वह अनुभव के आधार पर या गुणों के आधार पर वो छोटी पोस्ट पर होते है और जैसे जैसे अनुभव बढ़ता है उनकी पोस्ट भी बढ़ती जाती है या आयु का उदाहरण भी लिया जा सकता है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण जी ने वृति के आधार पर वर्ण बनाए थे, वर्ण का अर्थ जाति नहीं थी, वर्ण के दो ही शाब्दिक अर्थ है एक तो अक्षर तथा वर्ण का दूसरा अर्थ है वृति। यहां हम वृति की बात ही कर रहे है। हर इंसान तीन प्रकार की प्रकृति के अनुसार कार्य करते है,

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जिसमें सात्विक, दूसरी रजस तथा तीसरी तामसिक वृति होती है। इंसान तामसिक वृति अर्थात अज्ञान से सात्विक वृति अर्थात ज्ञान की ओर अग्रसर होता है, बस यही यात्रा या सोपान ही वर्ण है। जब कोई भी व्यक्ति जन्म लेता है तो वो क्षुद्र वर्ण का ही होता है अर्थात उसके ज्ञान का स्तर नीचे ही होता है, चाहे वो किसी भी परिवार में पैदा हो, और जैसे जैसे गुण की प्राप्ति करता है वैसे वैसे उसके कर्म बदलते जाते है और उसी के अनुसार वो क्षुद्र से ब्रह्म की ओर बढ़ता है। क्षुद्र का अर्थ है बिना किसी विशेष कौशल के राष्ट्र की सेवा करना, या समाज की सेवा करना है। क्षुद्र की अवस्था अज्ञान की अवस्था होती है।

श्रीमद्भगवद् गीता के चौथे अध्याय के 13 वे श्लोक तथा अठारहवें अध्याय के 44 वें श्लोक में बहुत ही स्पष्ट किया गया है कि ये सोपान कौन कौन से है और एक मनुष्य कैसे कैसे एक सोपान से दूसरे सोपान, दूसरे से तीसरे तथा तीसरे से चौथे सोपान तक जाता है और यह सभी के लिए खुला है यहां कहीं पर भी जाति की चर्चा नहीं है, बस लोगों द्वारा की गई व्याख्या का फर्क होता है। गीता के चौथे अध्याय के 13 वें श्लोक में श्रीकृष्ण जी ने कहा है कि " चातुर्वर्ण्यंम मया सृष्टम गुणकर्मविभाषः।


तस्य कर्तारमअपी मां विद्यकर्तार्मव्ययम"।। अर्थात मैने गुण के आधार पर कर्मों को चार वृत्तियों में बांटा है।

हालांकि मैं इस सृष्टि का क्रिएटर होते हुए भी मैं कुछ नहीं करने वाला भी नहीं हूँ। मै किसी कार्य में लिप्त नहीं हूं। हम इस गुण कर्म के विभाग को कुछ इस प्रकार समझ सकते है। श्रीकृष्ण इंसान के भीतर की दैवीय संपदा तथा आसुरी संपद की चर्चा भी करते है, बस इन्हीं दो संपदाओं से इंसान के गुण कर्म तय होते है। इन्हीं दोनों संपदाओं में से दैवी संपद के अभ्यास का चयन ही व्यवसाय कहलाता है, दैवी संपदा को व्यवहार में लाने को ही वनज कहा जाता है। जो व्यक्ति अपनी दैवी संपदा के माध्यम से तामसिक वृति से ऊपर उठकर रजस वृति और सात्विक वृति की ओर बढ़ता है उसी को वाणिज्य कहा जाता है,

इस स्थिति में इंसान अपनी तामसिक वृति को छोड़ देता है अर्थात अज्ञान को छोड़ कर राजस और सत्व की ओर बढ़ जाता है और उसी स्थिति को हम वैश्य बोलते है। अगले सोपान पर मनुष्य अपनी दैवी संपदाओं के अभ्यास से राजसिक वृत्ति को काटने की कौशिश करता है और राजस वृति के साथ लड़ता है, कभी राजसिक वृत्ति बढ़ती है तो कभी सात्विक बढ़ती है लेकिन इस युद्ध में उसको हराने का कार्य करता है उसी स्थिति को हम क्षत्रिय कहते है जहां पर राजस को हराकर सत्व की स्थिति में स्थित हो जाते है।

उसके बाद अगला सोपान ब्रह्म का है जहां इंसान उस सात्विकता के बंधन को भी छोड़कर उस ज्ञान से भी ऊपर चला जाता है जहां किसी प्रकार का कोई अहंकार नहीं है कोई ज्ञान नहीं है और कोई अज्ञान नहीं है, कोई विचलन नहीं है, वो ही स्थिति ब्रह्म की होती है। अगर हम श्रीमद्भगवद् गीता के अठारहवें अध्याय के 44 वें श्लोक की चर्चा करें , जिसे कुछ महानुभाव कहते है कि यहां ऐसा कहा गया हैं कि क्षुद्र दूसरे वर्णों की सेवा के लिए है यह गलत अर्थ लगाया जाता है, जब कि श्रीकृष्ण जी महाराज ने इस श्लोक में कहा है कि " कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यम वैश्य कर्म स्वभावजम। परिचर्याम कर्म शूद्रस्यआपी स्वभावजम।।"

अर्थात कृषि करना, गौपालन तथा वाणिज्य करना वैश्य के स्वभाव के कार्य है और अपनी विभिन्न स्किल्स के माध्यम से राष्ट्र की सेवा करना शूद्र का कार्य है। यहां इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक वो अपने स्तर पर जो भी कार्य जानते है उसी को स्वीकार कर राष्ट्र समाज की सेवा करें और अपने स्तर को धीरे धीरे ज्ञान की ओर बढ़ाए, ताकि वो वैश्य, क्षत्रिय के कार्य सीखते हुए ब्रह्म ज्ञान की ओर बढ़ सकें। प्रिय दोस्तो, यहां हमे यह बात स्पष्टता से समझ लेनी चाहिए कि ब्रह्म का अर्थ एब्सोल्यूट ज्ञान है, उच्चतम श्रेणी में पहुंचना है जहां न कोई लोभ है, ना कोई क्रोध है, न कोई लालच है, न कोई विचलन है, ना कोई द्वेष है, केवल प्रेम, ज्ञान स्नेह, करुणा, न्याय, निर्भयता तथा निष्पक्षता है। जहां पहुंचना हर इंसान का कर्तव्य होना चाहिए। तभी तो श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को कहां था हे अर्जुन तुम क्षत्रिय स्तर के हो, तुम्हारा इस समय कर्तव्य है कि तुम युद्ध करो, क्योंकि आप जिस भी स्तर पर हो, वही आपका कर्तव्य होता है, इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वो कोई जाति है, वो केवल सोपान है, जिससे गुजर कर हर किसी को एब्सोल्यूट की ओर जाना है।

ये मानव विकास की सीढ़ियां है, जिसपर हर इंसान अपने ज्ञान और कौशल से पहुंचता है। वैसे भी लॉजिकली भी हर इंसान जीवन में आरोहण भी करता है और अवरोहण भी करता है, अपने ज्ञान के अनुसार उन्हें आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है कि व्यक्ति जैसा पैदा होगा, वैसा ही मर जाएगा, उसकी तरक्की जरूर होती है या फिर पतन होता है। यहां भारतीय संस्कृति में या यूं कहे कि सनातन संस्कृति में प्रतीकों तथा कहानियों द्वारा जीवन को समझाने का प्रयास किया गया है,

अगर उसको समझने या समझाने में कोई गलती करें या जानबुझ कर व्याख्या गलत की जाए तो ये न केवल मानवता का क्षरण है बल्कि राष्ट्र को भी इससे नुकसान होता है। हर भारतीय नागरिक को अपनी गरिमा अनुसार जीवन जीने का मानवीय अधिकार है। और इससे सभी लोग अपनी अपनी क्षमता के अनुसार अगर आगे बढ़ेंगे तो देश भी विकसित होगा, देश की जी डी पी भी बढ़ेगी, लोगों का जीवन स्तर भी सुधरेगा, हर नागरिक की प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ेगी। राष्ट्र को आगे बढ़ाना है तो इन सोपानों को स्थाई नहीं बल्कि अस्थाई रखना चाहिए, और हर इंसान को अपने कर्म के गुण के अनुसार क्षुद्र से ब्रह्म तक पहुंचने के लिए मेहनत वा परिश्रम करना चाहिए, जिससे हर कोई तर्कशील बने, ज्ञान प्राप्त करें, जीवन को उच्च स्तर के सोपान तक पहुंचाए, और अपनी स्थिति में सुधार करें, तभी राष्ट्र विकसित होगा।
जय हिंद, वंदे मातरम