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विद्यार्थियों को व्यक्तित्व विकास के पंचस्तरीय ज्ञान को आत्मसात करने की आवश्यकता

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Students need to assimilate the five-tier knowledge of personality development

mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
मानव जीवन में सबसे महत्वपूर्ण काल माध्यमिक विद्यालय का होता है, यानी छठी कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक,अगर आयु की बात करें तो 11 से 14 वर्ष तक, इसमें ह्यूमन डेवलपमेंट की कला सीखने के अधिक अवसर के साथ साथ विद्यार्थियों को आगे आने वाली किशोरावस्था में आने वाले शारीरिक वा मानसिक संघर्ष करने के लिए जरूरी भी होती है। वैसे तो शारीरिक व मन के लेवल पर तो प्राथमिक विद्यालय में भी कार्य किया जाता है, लेकिन किशोरावस्था से तुरंत पहले की आयु तो 11 से 14 वर्ष की ही होती है।

एक ह्यूमन को सबसे पहले अपने शरीर का ज्ञान अवश्य होना चाहिए, शरीर के भीतर के वाइटल पार्ट की जानकारी, उनके कार्य, तथा शरीर को स्वास्थ्य रखने के महत्वपूर्ण पैरामीटर का ज्ञान भी होना चाहिए। एक विद्यार्थी का सबसे पहला और अतिमहत्वपूर्ण कार्य है कि उनका तन स्वस्थ रहे, सशक्त रहे, तन में जो अधिक जरूरी अंग होते है वाइटल्स, जिनसे शरीर अधिक तंदुरुस्त रहता हैं वा अधिक समय तक कार्य कर सकता है, उनके स्वास्थ्य के बारे में जानना भी बेहद जरूरी है।

हमारे कितने ऐसे विद्यार्थी होते है जो माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ रहे है और उन्हें अपने ह्यूमोग्लोबिन की मात्रा का पता होगा, रक्तचाप, खून में शुगर की मात्रा, रक्त में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा, रक्त में एच डी एल वा एल डी एल की मात्रा का पता होगा, उनके रक्त में ट्राइग्लिसराइड की मात्रा कितनी है और सही पैरा मीटर क्या है। यहां तो अधिकतर विद्यार्थियों को तो इस आयु में उनके रक्त ग्रुप का भी ज्ञान नहीं होता है। हार्ट बीट कितनी है और स्टैंडर्ड पैरामीटर क्या होता है, क्योंकि बिना ज्ञान के हम बड़ा नुकसान उठा लेते है। आजकल एक आम बात है कि पहले हार्ट की बीमारी 60 वर्ष से अधिक की आयु में होती थी लेकिन अब तो कोई आयु की सीमा नहीं है कि कब हार्ट की समस्या आएगी, यह बीस वर्ष की आयु में भी हो जाती है, कब आयु के बच्चों में ए टाइप शुगर देखी जाती है,

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कितने युवा ऐसे है जो जिम में व्यायाम करते करते हार्ट अटैक के शिकार हो जाते है। इसीलिए अब जरूरी हो गया है कि विद्यार्थियों को अपने शरीर संबंधित जानकारियों का ज्ञान भी रखना चाहिए, ये कोई मुश्किल कार्य नहीं है। इनमें ज्ञान के साथ साथ टेस्टिंग भी शामिल है कि समय समय पर अपने टेस्ट भी कराएं, अन्यथा कठिनाइयां का सामना करना पड़ता है। प्राथमिक विद्यालयों में तो बच्चों की आंखों की दृष्टि की बड़ी दिक्कत होती है, उन्हें ब्लैक बोर्ड तक साफ नहीं दिखाई देते है और वो अपनी दृष्टि संबंधी परेशानी ना तो अपने टीचर को बताते है, और न ही अपने पेरेंट्स को बता पाते है क्योंकि उन्हें ऐसा ज्ञान होता ही नहीं है। अगर हम पंच स्तरीय स्वास्थ्य की बात करे तो उसका पहला स्तर तो शरीर ही है, दूसरा स्तर मन, जिसे हम जानना ही नहीं चाहते है, जिसकी बीमारी को हम बीमारी ही नहीं मानते है, कुछ लोग तो अवसाद जैसी स्थिति को नाटक मानते है। मन ही तो हमारे सारे इमोशंस को प्रदर्शित करता है,

मन को सशक्त बनाना भी तो हमारी ही जिम्मेदारी है अर्थात एक विद्यार्थी की ही तो जरूरत है। जिस प्रकार से हर शिक्षण संस्थानों में बुलीइंग की समस्या बढ़ रही है, उससे निपटने के लिए तो सशक्त मन की जरूरत है। हर विद्यार्थी को टॉक्सिक इमोशंस एवं पॉजिटिव इमोशंस की जानकारी होनी चाहिए, जैसे मन दुखी क्यों है ? जैसे अधिक क्रोध क्यों आ रहा है? या उदासी क्यों छाई हुई है? किसी के प्रति द्वेष या जलन क्यों हो रही है? मन में किसी के प्रति ईर्ष्या आने का क्या कारण है? मन में किसी का बुरा करने का विचार क्यों आ रहा है? मन व्यथित क्यों है? विद्यार्थी क्यों किसी से बात नहीं करना चाहते है? क्यों अपने मन की बात किसी को शेयर नहीं करना चाहते है, मन में अवसाद का कारण क्या है? ऐसा जानने का अभ्यास करना चाहिए और स्कूल में विद्यार्थियों के साथ मन को जानने के अभ्यास आदि कराने चाहिए क्योंकि इसके भी कुछ कारण होते है। इससे अगला स्तर बुद्धि या कह सकते है ब्रेन का, इसमें विद्यार्थियों की बुद्धि शार्प करने के लिए अधिक से अधिक पठन पाठन तथा अभ्यास की गतिविधियां होनी चाहिए। बुद्धि के तीन आयाम होते है,

पहला सकारात्मक, दूसरा नकारात्मक तथा तीसरा न्यूट्रल। जब हमारे बच्चे नकारात्मकता की ओर बढ़ते है तो भीतर से पक्षपात, षडयंत्र, किसी का भी बुरा करने की योजना, किसी के साथ अत्याचार करने की प्लानिंग, किसी के लिए भी बुरा सोचने का विचार आता है, अगर बुद्धि को पॉजिटिव रास्ता दिखाया जाए तो वो कल्याणकारी कार्यों में अग्रसर होते है, अन्यथा हमारा समय स्थिलिता में जाता है।  बुद्धि को सत्व गुण के लिए प्रेरित करना पड़ता है। इससे अगला स्तर विवेक का है यानि बैलेंस, जिसमें तर्कशीलता आती है, हम एक तुला की तरह हर कार्य के परिणाम को ध्यान में रखकर कार्य करते है, अच्छे बुरे का ध्यान आता है, सत्य असत्य का ज्ञान रहता है, हिंसा अहिंसा का ख्याल रहता है, हर जीव का ध्यान करना है, विवेक एक तुलना करने का गुण है

जो हर गलत कार्य के लिए पहले से सतर्क करता है कि ये करना चाहिए और ये नहीं करना चाहिए। बुद्धि जितनी शार्प होनी चाहिए, उससे कहीं अधिक विवेक का गुण होना चाहिए, अन्यथा बुद्धि नेगेटिविटी का आसान रास्ता चुन लेती है, जिसे हम शास्त्रीय भाषा में तामसिक रास्ता कहते है। हमारा अगला स्तर आत्मा का है, जो विद्यार्थियों को आनंद की ओर लेकर जाती है, जो विद्यार्थियों को हर प्रकार के झूठे दिखावे, अपव्यय, फैशन, उल्टा पुल्टा खाने से अलग रखता है। आत्मा का आधार निर्लेप विवेक, आत्मा के द्वारा ही हम परम से मिल सकते है। परम का अर्थ है श्रेष्ठता तक पहुंच सकते है। युवा साथियों, परम कहें, या परमात्मा कहें या श्रेय या श्रेष्ठता कहें, ये सब रूप ईश्वर के ही तो है अर्थात श्रेय के ही तो है। अलग अलग श्रेणी के लोगों के लिए आत्मिक ज्ञान अलग अलग तरह का होता है।  आत्मा यानि बिना किसी इच्छा वा चिंता के अपना श्रेष्ठ करना, अपनी मेहनत का श्रेष्ठ देना,

अपने सत्य का श्रेष्ठ देना, अपनी ईमानदारी का श्रेष्ठ देना, शरीर को श्रेष्ठ करना, मन को श्रेय मार्ग पर स्थित करना, बुद्धि को श्रेष्ठ गुण देना और विवेक को श्रेष्ठ बनाना। जहां किसी भी प्रकार की चाहत के बिना कर्म, मेहनत, तप या यज्ञ किए जाते है वो ही आत्मिक स्तर है जहां कोई भय नहीं है, जहां कोई निराशा नहीं है, जहां कोई अवसाद नहीं है, जहां कोई लाभ हानि का भय नहीं है, अगर है तो केवल कर्म, श्रेय मार्ग को चुनना ही आत्मा का जागरण है। विद्यार्थी जीवन में माध्यमिक विद्यालयों में इन सभी पंच स्तरीय स्थितियों का ज्ञान कराना होगा, तभी हम सशक्त विद्यार्थी तैयार कर सकते है जो भारत को विकसित राष्ट्र वा विश्व गुरु के रूप में स्थापित कर पाएगा।
जय हिंद, वंदे मातरम