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संवेदनशीलता से समानुभूति की जीवन यात्रा हर इंसान को विवेक की शक्ति प्रदान करती है

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The journey of life from sensitivity to empathy gives every human being the power of discernment

mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
जीवन तब नरक बन जाता है जब कोई भी व्यक्ति स्वार्थी हो जाता है, खुद तक सीमित हो जाना ही नरकगामी है, तथा मोह , अन्याय पक्षपात पर विमर्श ठहर जाता है। ह्यूमन के जीवन की धारा तीन तरह से बहती है उन तीनों धाराओं के बीजारोपण से लेकर परिणाम तक की यात्रा किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा उनकी मेच्योरिटी को निर्धारित करती है। हम सभी देखते है कि कुछ हिम्मती तो बहुत होते है परंतु उनके भीतर करुणा नहीं होती है, दया के भाव नहीं होते है या कुछ लोग दयावान तो बहुत होते है लेकिन बहादुर नहीं होते है, या फिर यूं कहें कि कुछ लोग दयावान भी होते है बहादुर भी होते है लेकिन न्यायकारी नहीं होते है।

सहानुभूति तो रखते है लेकिन किसी का भला नहीं कर सकते है, किसी को सहज मरहम लगाने के शब्द तो बोल देते है लेकिन वास्तव में सहयोग करते नहीं है। अधिकतर लोगों में मोह, लोभ, भय तथा क्रोध की मात्रा बहुत अधिक होती है। विद्यार्थियों और युवाओं को अपने व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिए इन सभी कमियों को दूर करने की आवश्यकता है। हम, उम्र से तो बड़े हो जाते है लेकिन हमारे भीतर परिपक्वता नहीं आती है, बड़प्पन नहीं आता है,

मैच्योरिटी नहीं आती है। जीवन में हर प्रकार की दैवीय संपदा का अंकुरण अलग अलग प्रकार से होता है, तभी तो कुछ महानुभाव सत्य तो बोलते है लेकिन उनमें अहंकार जन्म ले लेता है, या कुछ लोग ईमानदार तो होते है लेकिन संवेदनशील नहीं  होते है, बस यही कमी हमारे व्यक्तित्व को अधूरा बना देती है। हम जिन तीन धाराओं की बात करते है उनमें पहली धारा निर्मोह से शुरू होती है जो न्याय तक सफर करती है, उसी प्रकार दूसरी धारा संवेदना से शुरू होकर सहानुभूतिं तक जाती है और तीसरी धारा दया से शुरू होकर प्रेम तक जाती है, और जब ये तीनों धाराएं मिलती है तो ये समानुभूति को जन्म देती है।

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समान अनुभूति को प्राप्त व्यक्ति ईमानदार भी होता है, सत्य का पालन भी करते है, संवेदनशील भी होते है, न्यायकारी भी होते है, क्योंकि दूसरे के दुख तक़लीफ पर अपना दुख प्रकट करने को सहानभूति कहते है परंतु दूसरे की दुख तक़लीफ को अपनी समझने को समानुभति कहते है। जब किसी के व्यक्तित्व में सामानुभति का जन्म होता है तो वो संपूर्ण व्यक्तित्व की संपदा से परिपूर्ण माने जाते है। जीवन में आसुरी संपदा की बात करें तो एक ही बीज से शुरू होती है और क्रोध, पक्षपात,अन्याय, अपराध, तक पहुंचती है। श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय दो के श्लोक 62 में भगवान श्री कृष्ण जी महाराज ने कहा है कि " ध्यायते विषानपुंश: संगस्तेषुपजायते। संगातसंजयते काम: कामात्क्रोधो अभिजायते" ।। अर्थात जो विषय वासना के विषय में सोचते रहते है उनमें काम व मोह  की इच्छा जागृत होती है, जब उस काम की पूर्ति नहीं होती है तो क्रोध उत्पन्न होता है।


इसी प्रकार श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय दो के श्लोक 63 में श्लोक में श्रीकृष्ण जी ने आगे कहा है कि " क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहत स्मृतिविभ्रम स्मृतिभ्रशाद बुद्धिनासो बुद्धिनाशत्वप्रांश्यति।।" अर्थात जब क्रोध आता है तो उससे विमूढ़ता उत्पन्न होती है विमूढ़ता से स्मृति  मिटती है, स्मृति के जाने से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से सब कुछ खत्म होता है। जीवन में कुछ बीज ऐसे है जिनके बीजारोपण का परिणाम जरूर मिलता है। एक बिंदु ऐसा है जहां से यात्रा शुरू होती है तो वो बुद्धि के नाश तक लेकर जाती है।

एक बिंदु ऐसा है जो सामानुभूति तक लेकर जाता है और एक बिंदु ऐसा है जो हमे अपराध तक लेकर जाता है। ये ही तीनों यात्राएं आगे जाकर एक परिणाम में तब्दील होता है जिसे हम एमपथी कहते है या हिंदी में उसे समानभूति भी कहते है। दैवीय संपदा का लक्ष्य या ध्येय सामानुभूति को प्राप्त होना है, जिसके माध्यम से एक इंसान उस बिंदु पर पहुंचता है जहां न तो अन्याय है, न भय है, न लोभ है, और न ही पक्षपात वा न बेईमानी है। जीवन को जीने के लिए सामानुभूति एक ऐसी अंतरात्मा की आवाज है जो कभी भी किसी के साथ पक्षपात व अन्याय करने के विचार को पनपने भी नहीं देती है।

जब हम दूसरों के जीवन के दुख, जरूरत, अभावों तथा खुशी को समझने लगते है तो जीवन से आडंबर व अंहकार कहां लुप्त हो जाता है पता ही नहीं चलता है। जीवन की सबसे बड़ी कमी किसी भी प्रकार का मोह है जिनके बारे में श्रीमद्भगवद् गीता के दूसरे अध्याय के 62 व 63 वें श्लोक में समझाया गया है। प्रेम बीज है सामानुभूति का, प्रेम बीज है अहिंसा का, प्रेम बीज है न्याय का, प्रेम आधार है निष्पक्षता का, प्रेम आधार है केयर का, प्रेम आधार जीवन में समानुभति का। इसके विपरित मोह बीज है इच्छा का, मोह आधार है, लोभ का, लोभ आधार है क्रोध का, क्रोध आधार इच्छा की पूर्ति न होने का, क्रोध  आधार है बुद्धि की नकारात्मकता का, बुद्धि की नकारात्मकता आधार है अपराध, अन्याय का।

जीवन की सभी पॉजिटिव धाराएं सामानुभूति पर सिमटती है, जिसे प्रेम द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, स्नेह में प्रदर्शित किया जा सकता है। मैं, से हम की भावना भी तो सामानुभूति की ही यात्रा है, हम से वसुधैव कुटुंबकम् तक भी पहुंचने की यात्रा है सामानुभति। समान अनुभति, समान  दुख तकलीफ, सामान प्रशंसा, सामान प्राप्ति, समान बटवारा, समान नियम और समान अवसर, समान चुनौतियां यही तो प्रेम का आधार है। जीवन की परिणति है सामानुभूति, इसके माध्यम से हम अपने संविधान में दिए गए चार आधारों को प्राप्त करते है, जिससे जस्टिस, इक्वलिटी, लिबर्टी तथा फ्रेटरनिटी के परम लक्ष्य को भी प्राप्त किया जा सकता है। सामानुभूति से हर जीव की भाषा को समझने की क्षमता मिलती है, सभी जीवो के दुख तकलीफों को समझने का ज्ञान मिलता है, खुद महसूस किया जा सकता है, हर किसी की जरूरतों को समझा जा सकता है। हम सामानुभूति के माध्यम से किसी के तनाव, दबाव या अवसाद को समझते है। हम इसे तदनुभति भी कह सकते है कि जैसी अपनी तकलीफ है उसे अपनी समझकर अनुभूति करना है, जिसे इंग्लिश में एमपथी कहते है,

संस्कृत में तदनुभूति कहते है, भीतर से उठी करुणा की एक हूक कहते है। यहां एक बात बहुत ही स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि सामानुभूति को समझने के लिए दूसरे व्यक्ति के दुख तकलीफ, अभाव, अज्ञानता, वेदना, जरूरत, क्रोध के भाव, मन के विचलन, युवा की किशोरावस्था से संबंधित तकलीफ, विद्यार्थियों की पारिवारिक समस्याओं, हर किसी के आधार पर खड़े होकर उन सब का एहसास करना ही उसका सच्चा अर्थ है। दूसरों की भूख, प्यास, अभावों, वस्त्रों की कमी, आर्थिक अभावों तथा जीवन की हर कठिन अवस्थाओं को समझने की जरूरत है।

उसके निवारण के लिए हम सभी को अपने भीतर प्रेम स्नेह के बीजारोपण के द्वारा सामानुभूति उत्पन्न करने की जरूरत है, ताकि सभी जीवो का जीवन आसान बन सकें। समानुभूति से हम तुलाधर बनते है अर्थात विवेक का रास्ता अपनाते है, तर्क का रास्ता अपनाते है जहां से शंकराचार्य जी द्वारा दिए गए अद्वैत सिद्धांत के आधार पर सभी अपने जैसे ही दिखते है, सभी में उस ईश्वर का तत्व दिखता है, सभी स्वयं जैसे लगते है, स्नेह व सहयोग की धारा स्वयं बह निकलती है। जीवन की सार्थकता समझ में आने लगती है, विवेक की शक्ति जागृत हो जाती है।
जय हिंद, वंदे मातरम