धर्म तो अब प्रतीकों में सिमट कर रह गया है, मन कलुषित और दुखी ही रह जाता है

Mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
"मन चंगा तो कठौती में गंगा" गुरु रविदास जी के इस कथन का अर्थ सभी को समझने की जरूरत है। धर्म धीरे धीरे अपना असली मतलब खोता जा रहा है, ऐसे ऐसे महानुभाव धर्म के व्याख्याता हो गए है जिन्हें खुद धर्म का अर्थ नहीं पता है, धर्म का अर्थ मानव उत्थान है, मानव की विकृतियों को दूर करना है, ना कि विकृतियां पैदा करना। धर्म तो मुक्ति का माध्यम है और धर्म प्रतीक केवल शरीर से प्रदर्शित होता है,
लेकिन धर्म ही है जो मन को साफ करता है। आधुनिक युग में तो हमारे सभी धर्म पंथ केवल प्रतीकों में उलझ कर रह गए है, जो जितना ज्यादा बहकाने का कार्य करेंगे, वो उतने ही बड़े धार्मिक, जो जितने ज्यादा प्रतीक ओढ़ेंगे वो उतने ही बड़े धार्मिक, शेड वस्त्र पहनने वालों को तो कोई धार्मिक भी नहीं मानते है। आजकल धर्म ज्ञान से नहीं, मन से नहीं, केवल प्रतीकों से जाने जाते है। कोई टोपी लगाए तो मुस्लिम, कोई टीका लगाएं तो हिंदू, कोई पगड़ी पहने तो सिख और अगर कोई क्रॉस पहने तो ईसाई, बस यही धर्मों की पहचान रह गई है।
ऐसा लगता है धर्म केवल शारीरिक ही रह गया है। जब कि हमारे शास्त्र तो कहते है कि शरीर से धर्म का कोई अर्थ नहीं है, शरीर तो सबसे निचली सीढ़ी है, उससे ऊपर उठना ही धार्मिक होना शुरू होता है, और अगर शरीर में ही अटक गए या प्रतीकों में ही अटक गए तो फिर वो धर्म नहीं है, वो कोई पंथ नहीं है। क्या कोई इनमें से कोई प्रतीक अपने शरीर पर नहीं लगाता है तो वो धार्मिक नहीं होगा, निश्चित रूप से होगा, क्योंकि मन को चंगा करने पर ही कठौती में गंगा उतरेगी। मन को चंगा करने के लिए ही धर्म की जरूरत होती है। "धृति क्षमा: दमोंअस्तेय शौचम इंद्रियनिग्रह। धीर्विद्या सत्यम अक्रोधो दशकम धर्मलक्षणम।।" अर्थात जहां धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य तथा अक्रोध, ये धर्म के दस लक्षण है जो शारीरिक नहीं, बल्कि मन का नियंत्रण है, मन को साफ करना है, मन को संयमित करना है, शरीर से ऊपर उठना है। हमारा रहन सहन केवल शरीर तक सीमित है, योग के द्वारा हम मन को नियंत्रित करने का प्रयत्न कर सकते है।
कबीर जी ने कहा कि " पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार, इससे बेहतर चक्की है जो पीस खाए संसार" अर्थात यहां जो बात कही है वो धर्म के प्रतीकों के बंधन से छूटना है, इससे मुक्त होना है। हमने धर्म के प्रतीकों को ही धर्म मान लिया है, उन्ही का ओढ़ना ओढ़ लिया है और एक कर्म से हट कर दूसरे कर्म में फंस गए है, प्रतीकों में उलझना भी तो एक कर्म ही है। जब तक शारीरिक बंधन से ऊपर नहीं उठेंगे, तब तक हमें मुक्ति नहीं मिल सकती है। कम वासना, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या द्वेष, ये तो शरीर की ही चाहता है, शरीर ही मांगता बेहतरीन कपड़े, फैशनेबल कपड़े, शरीर ही मांगता है नशा, बियर शराब आदि। मोक्ष मृत्यु के बाद नहीं मिलता है ये तो जीवन में ही मिलेगा। मन के दुख से कैसे निजात पाएं, यही तो भारतीय संस्कृति का मूल है। मन को स्वच्छ करने के लिए हर दिन जतन करना चाहिए। रंग बिरंगे कपड़े पहनना धर्म नहीं है, ये तो प्रतीक है। विभिन्न पूजा पद्धति को अपनाना धर्म नहीं है ये तो प्रतीक है। विभिन्न तीर्थ करना धर्म नहीं है ये तो प्रतीकों पर पिकनिक की तरह जाना है, जो आजकल हो रहा है। झूठी आस्था का लबादा ओढ़ कर धार्मिक बनने का ढोंग रच रहे है लोग। वाल्मीकि रामायण में कहा है कि क्षमा ही धर्म है।
उनके अनुसार " क्षमा दानम, क्षमा सत्यम, क्षमा यज्ञाश्च पुत्रिका। क्षमा यश: , क्षमा धर्म, क्षमाया विशिष्टता:।। अर्थात क्षमा ही दान है, क्षमा ही सत्य है, क्षमा ही यज्ञ है , क्षमा ही यश कीर्ति है और क्षमा ही विशिष्ट है। यहां हम ये कहना चाहते है कि धर्म के सिद्धांत को अपनावो, प्रतीकों को नहीं, प्रतीकों से जीवन में बदलाव नहीं होगा। अपने मन की दीवारों को तोड़ों, तभी आप अपने मन के कालेपन को मिटा पाएंगे, अन्यथा ऐसे ही मर जाएंगे। धर्म एक मात्र टूल है जिससे मन के सारे दुख दूर होते है, मन से मोह, लोभ, ईर्ष्या द्वेष, अहंकार मिटता है, यही तो मुक्ति है। युवा साथियों, आओ मिलकर धर्म के प्रतीकों से छुटकारा पाकर, अपने मन का कलुषण दूर करे और संसार के सभी दुखों से पार पाएं।
जय हिंद, वंदे मातरम