कोथली की परम्परा स्वास्थ्यवर्धक होती है, इसे सभी ग्रामीण ही नहीं, बल्कि शहरी लोग भी समझें
Jul 26, 2025, 10:53 IST
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नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
वर्तमान में हमने जिस प्रकार से अपनी परम्पराओं को तिलांजलि देने का व्यवहार कायम किया है, उसी प्रकार से हमारे जीवन में बीमारियों का आगमन भी तेजी से हो रहा है। हम अपने जीवन को दूसरों की प्रचार सामग्री से चलाना चाहते है, हमारे जीवन के लिए क्या जरूरी है क्या अनावश्यक है ये टेलीविजन पर चलने वाले प्रचार से तय होता है, इससे बड़ी मूर्खता कोई हो नहीं सकती है। अब तो हमे मौसम के अनुसार भोजन का ज्ञान भी नहीं रहा है, बाकी तो छोड़ ही दीजिए। हम तो पूरे साल एक जैसा ही भोजन करते है, क्या हमारा क्लाइमेट सदैव एक जैसा रहता है?
नहीं ऐसा नहीं है। लेकिन हमे ध्यान ही नहीं है कि हम गर्मी में क्या खाएं, सर्दी में क्या खाएं, वर्षा ऋतु में कैसा भोजन करें, नहीं पता है हमें। हमारे तीज त्यौहार ही तो थे जो मौसम के अनुसार हमे सजग करते थे कि हमे कैसा भोजन खाना है। हमारे तीज त्यौहार ही तो बताते थे कि इस महीने में क्या खाना है? क्या करे सब कुछ छोड़ दिया है। बसोडे का भी अर्थ था भोजन के चयन हेतु। अब तो गर्मी का भोजन सर्दी में, सर्दी का भोजन गर्मी में तथा वर्षा ऋतु में क्या खाना है लोगों को कोई ज्ञान ही नहीं है। कहते है जो सीजनल तथा रीजनल भोजन करते है वो कभी अस्वस्थ नहीं होते है, लेकिन अब तो ऐसे ऐसे महानुभाव है जिन्हें सीजन तथा रीजन का कोई ध्यान ही नहीं होता है।
वो तो वो खाते है जो महीनों कोल्ड स्टोरेज में पड़े होते है, जो महंगे है, जो महंगे है वो ही तो सम्मान महसूस कराते है। ये मीमांसा तो हम इसलिए कर रहे थे कि हमे अपना खाना पीना ठीक रखना चाहिए, तभी हम खुश रह सकते है। भारतीय संस्कृति में तो हमारे ऋषियों ने महीने के अनुसार भोजन तय किए थे, किस माह में क्या खाना है ये सब तय किए थे परंतु आज तो हर घर में चाहे गर्मी का मौसम हो, चाहे सर्दी का मौसम हो या फिर बरसात हो, या फिर बसंत हो, बारह महीनों एक जैसा खाना बनता है।
सावन के महीने में कोथली का क्या महत्व है इसे समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि ये हमारी परंपराओं तथा हमारे स्वास्थ्य से जुड़ी हुई है। हमारे यहां परम्परा थी कि हम सब कुछ घर में तैयार कर के ही उपयोग करते थे। कोथली, बहन बेटियों को तीज के अवसर पर देने वाली खाने की वस्तु है जिसमें सुहाली, शकरपारे, मीठी पूरी शामिल होती है और इसे शुद्ध सरसों के तेल में बनाया जाता है। भारतीय संस्कृति में आयुर्वेद कहता है कि वर्षा ऋतु में तेल खाना स्वास्थ्यवर्धक होता है, इसीलिए सभी लोग अपने परिवार में भी खाने के लिए गुड़ और आटे से सरसों के तेल में बने हुए पूड़ी, शकरपारे, चिल्ला, बेसन के पकोड़े, जो तेल में बने हो, उनका सेवन करते थे और वो ही खाने की चीजें बहन बेटियों को उनकी ससुराल भेजते थे। तीज त्यौहार तो अभी भी भेजते है लेकिन कोथली तो चलन से बाहर ही होती जा रही है। अगर आप एक बार घर में शकरपारे या पुड़ी, पकौड़े बना लो तो आराम से एक सप्ताह तक उपयोग कर सकते है। आजकल तो लोग बाजार से अशुद्ध चीजें तो खरीद लेते है परंतु घर में बनाने की परम्परा खत्म सी हो गई है। हम सभी को कोथली की परम्परा दुबारा शुरू करनी चाहिए, कम से कम खुद के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ही बना लो, और उसी को बहन बेटियों को भी भेज दो, ताकि कुछ तो अच्छा खाने को मिल जाए।
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जिन्होंने भी तेल घी खाना बंद किया है उनका स्वास्थ्य ही ठीक नहीं है, उनके घुटने ठीक नहीं है। अगर हमारा भोजन ऋतु वा क्षेत्र के अनुसार होगा, तो ही हम स्वस्थ रह सकते है, अन्यथा नहीं। वैसे तो कोथली का शाब्दिक अर्थ तो कपड़े की एक थैली कहो या थैला कहो या फिर चमड़े की भी कोथली बनती है जिसमें रखकर खाने के पकवान तीज के त्यौहार पर अपनी शादीशुदा बहन बेटियों के ससुराल में पहुंचाते है। जैसे समय बदला लोगों ने अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना शुरू किया और अपने घर में बनने वाले शुद्ध खाद्य पदार्थों से दूर होते गए। शकरपारे तथा करारी मीठी पूरियों का स्थान पतासे से होता हुआ घेवर तथा मिठाइयों से भी कब कैश तक कब पहुंच गया,
हमे पता ही नहीं चला। आजकल तो घर में शकरपारे या मीठी पूरी बनाने वाले तो पिछड़े समझे जाते है, वो गरीब समझे जाते है, वो पागल समझे जाते है। इसके विपरित जो लोग शहर के बाजार से अशुद्ध मिठाई खरीद कर अपनी बहन बेटियों को गिफ्ट के रूप में देते है, उन्हें अधिक अमीर समझा जाता है, उन्हें आधुनिक समझा जाता है। अरे जिन्हें अपने सेहत की परवाह नहीं है वो खाक समझदार, वो खाक अमीर है। वो तो खाना पूर्ति करते है, वहां प्रेम नहीं है, वहां परवाह नहीं है। अब तो कोथली नाम की ही रह गई है। कोथली का असली मकसद तो सेहत था, साथ ही गिफ्ट भी था, लेकिन सेहत अधिक मायने रखती थी, क्योंकि वर्षा ऋतु में तीज में ऐसे खाद्य पदार्थ बनाए जाते थे, जो हमारी सेहत के लिए आवश्यक थे। अब तो स्वास्थ्य तो सबसे निचले पायदान पर गिनी जाती है। पहले स्वास्थ्य से खिलवाड़ करके पैसे कमाते है, तनाव कमाते है, चिंता कमाते है, अवसाद कमाते है, शुगर कमाते है, उच्च रक्तचाप कमाते, हृदय की बीमारी कमाते है, कुछ लोग तो पूरी सेहत का कबाड़ा ही कमाते है फिर उसी पैसे से सेहत को सही करने में जुट जाते है। आखिरी में जाने का समय जब आता है तो बैलेंस शीट में लेनदारी से अधिक देनदारी होती है अर्थात मन में खुशी से अधिक ग्लानि होती है। हम यहां यही कह सकते है कि हम सभी को अपने खाने पीने की चीजों में शुद्धता के साथ साथ स्वास्थ्य वर्धक खाद्य पदार्थों का ही चयन करना चाहिए, क्योंकि जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्वास्थ्य ही है।
सेहत के साथ खिलवाड़ करना, जीवन के साथ अन्याय करना जैसा है। हमे कोथली से अपनी परम्पराओं को जिंदा रखने का अवसर मिलता है, अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होने का ज्ञान प्राप्त होता है, तथा मौसम अनुसार अपना भोजन रखने का मकसद मिलता है। यह मुश्किल नहीं है, अगर आप घर में खुद खाना बनाते है तो ऐसे खाद्य पदार्थ खुद बनाए और अगर आपके घर में कूक से खाना बनवाया जाता है तो उनके साथ खड़े होकर उनसे बनवाए। अपने परिवार के भोजन को मौसम से जोड़ने की जिम्मेदारी मातापिता को ही उठानी होगी, तभी हम स्वास्थ्य का असली अर्थ समझ सकेंगे तथा अपनी कोथली की परम्परा को जीवित रखकर स्वस्थ जीवन की सीख लें पाएंगे।
जय हिंद, वंदे मातरम
जय हिंद, वंदे मातरम