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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव पर गीता उपदेशों को जीवन में उतारने का संकल्प लें सभी विद्यार्थी

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 श्रीकृष्ण

mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
श्रीमद्भगवद् गीता के सोहलवें अध्याय के 21 वे श्लोक में भगवान श्री कृष्ण जी महाराज ने कहा है कि " त्रिविधं नरकस्यइंदम द्वारम नाशनमआत्मां, काम: क्रोधस्यतथा लोभस्य तस्माततत्रायम तजयेत।" अर्थात मनुष्य के तीन नरक के द्वार है जो आत्मा का पतन करते है, काम वासना, क्रोध तथा लोभ ही तो ये नरक है। हम तो इसमें केवल क्रोध की ही बात कर रहे है, क्योंकि काम की पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। यहां मैं श्रीमद्भगवद् गीता के एक और श्लोक का जिक्र भी करना चाहूंगा, क्योंकि हमे अपने दुर्गुणों को परास्त करना है तो हमे अपने शास्त्रों का सहारा लेना पड़ेगा।

गीता के दूसरे अध्याय के 63 वे श्लोक में श्रीकृष्ण जी महाराज ने उपदेशित किया है कि" क्रोधाभवती सम्मोह: सम्मोहात स्मृति विभ्रम:। स्मृति भ्रमशात बुद्धिनाश:, बुद्धि नाशात प्रणशयंती"। अर्थात क्रोध से सम्मोह पैदा होता है, सम्मोह से स्मृति भ्रम होता है, स्मृति विभ्रम बुद्धि का नाश करती है, बुद्धि नाश से आत्मा का पतन हो जाता है। इसलिए हमें अपने क्रोध पर नियंत्रण करने की बेहद जरूरत है। जीवन में अधिकतर मुसीबतें मनुष्य के क्रोध से ही उत्पन्न होती है, अगर इसको साध लिया जाए तो देश की ज्यादातर जेल भी खाली हो जाएगी, क्योंकि क्रोधवश ही तो सभी अपराध होते है, जिनका बाद में सभी को पछतावा होता है।

श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय दो के 47 वे श्लोक में तो विद्यार्थियों को इतना बड़ा संदेश दिया है कि जीवन में कभी अवसाद आवे ही नहीं, परंतु हम गीता के उपदेशों का पाठ करते ही कहां है। हमारे यहां तो हर बात का रटा लगाने का रिवाज हो गया है, अर्थ समझने का तो प्रयास ही नहीं करते है। गीता के इस श्लोक में कहा है कि " कर्मण्यवधिकारसते मा फलेशू कदाचन, मा कर्मफलहेतुरभुमरा ते संगोषती कर्मणी" अर्थात हमारे पास कर्म करने का अधिकार तो है, कौन सा कर्म करना है उसका चयन करने की स्वतंत्रता भी है लेकिन उसका फल हमारे हाथ में नहीं है, फल तो उस कर्म पर निर्भर होता है। जैसा हम कर्म करते है वही फल का निर्धारण करता है। यहां ये भी जान लेना आवश्यक है कि कर्म क्या है?  कर्म नियत कार्य को ही कहा जाता है। जो हम अक्सर सुनते है कि गीता में लिखा है कि कर्म करो फल की इच्छा मत करो, ऐसा कहीं नहीं लिखा है इसे समझे सभी जन तथा विद्यार्थी।

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जीवन में सीखने का काल विद्यार्थी रहते हुए होता है। श्रीमद्भगवद् गीता में मानव मात्र को जो उपदेश दिए है वो कहीं और नहीं मिलेंगे, अगर गीता के कुछ श्लोक पर ही ध्यान दें ले तो इंसान का जीवन ही बदल जाएगा। विद्यार्थियों के लिए मै एक और श्लोक की चर्चा अवश्य करूंगा, क्योंकि अधिकतर विद्यार्थियों का जीवन उनके दोस्त, मित्रों से बेहद प्रभावित होता है, और उसी से उनके जीवन के भविष्य का रास्ता तय होता है।

श्रीकृष्ण जी महाराज ने बहुत ही तार्किक तरीके से अर्जुन को प्रोत्साहित करने की कौशिश है। गीता के दूसरे अध्याय के 62 वें श्लोक में कहा गया है कि " ध्यायतो विषयनपुष: संगश्तेषुपजयते। संघातसंजयते काम: कामात्क्रोधो अभिजायते "।। अर्थात जब कोई भी विषयों के बारे में ध्यान करते है तो किसी का संग करने का मन करता है, अर्थात कम के प्रति आकर्षण होता है, वही संग फिर कामवासना को जन्म देता है, उसी काम की पूर्ति में जब अड़चन आती है तो फिर क्रोध आता है। क्रोध सभी समस्याओं की जड़ होती है। क्रोध से ही तो व्यक्ति अपराध करता है, क्रोध से ही तो रिश्तों में दरार आती है, क्रोध से ही तो समरसता खत्म होती है, क्रोधवश ही तो जीवन द्वेष जलन वा ईर्ष्या का जन्म होता है। इसी से जीवन में विचलन पैदा होता है। युवा विद्यार्थियों को ही नहीं बल्कि सभी इंसानों को श्रीमद्भगवद् गीता का पाठ अवश्य करना चाहिए।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव के अवसर पर हम सभी को संकल्प लेना चाहिए कि आज से ही अपने अपने घरों में श्रीमद्भगवद् गीता का पाठ अवश्य करेंगे और सभी बच्चों, किशोरों तथा युवाओं के लिए जीवन को तराशने का सबसे उत्तम रास्ता है। श्रीमद्भगवद् गीता कोई पुस्तक नहीं है, ये केवल शास्त्रीय ग्रंथ भी नहीं है, ये तो जीवन के लिए मैनुअल है जिससे जीवन में ऊर्जा, सकारात्मकता, हिम्मत, हौंसला तथा उत्साह आता है। यहां मैं युवा विद्यार्थियों को गीता के दो श्लोकों का जिक्र और करना चाहूंगा जो आधार है जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिए। श्रीमद्भगवद् गीता के पहले अध्याय का पहले श्लोक में महाराज धृतराष्ट्र के मोह को दर्शाया गया है जो सभी अवगुणों की जड़ है उसमें धृतराष्ट्र संजय से कहते है कि"   धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे संवेता युयुत्सव, मामाका पांडवश्च किमकुवत संजय"। अर्थात महाराज धृतराष्ट्र कहते है कि संजय धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में मेरे बच्चे और पांडव क्या रहे है यानी राजा होने के बावजूद धृतराष्ट्र ने मोहवश पांडवों को अलग कर दिया। जीवन में अधिकतर इसी कारण विवाद उत्पन्न होते है। यहां गीता एक एक बात को स्पष्ट करती है कि धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र में क्या अंतर है, यहां धर्मक्षेत्र का मतलब है हमारी ड्यूटी क्या है और कुरुक्षेत्र का अर्थ कि हम कर क्या रहे है, उसमें कितना अंतर है, उसी की पहचान तो गीता के पहले अध्याय में होती है। हमे जो करना चाहिए था या जो हमारी ड्यूटी थी, वो मोह के कारण नहीं किया।

और वहीं से गीता शुरू होती है तथा अठारहवें अध्याय के आखिरी यानि 74 वें श्लोक में कहा है कि " यत्र योगेश्वर कृष्णों यत्र धनुर्धर पार्थों। तत्र श्रीरविजय भूतिरधुर्वा नीतिर्मतिर्मम"।। अर्थात जहां भगवान श्रीकृष्ण है, जहां अडिग नीति के साथ धनुर्धर अर्जुन है, वहीं निश्चित ही विजय, एश्वर्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि जीवन में भगवान श्रीकृष्ण अथवा ज्ञान वा मोटिवेशन है, और जहां कर्म है, अभ्यास है वहीं जीत और ऐश्वर्य है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि जहां ज्ञान के अनुसार कर्म या अभ्यास होगा, वही सफलता होगी। इसी बात को सभी लोगों को समझना चाहिए, जिससे जीवन सार्थक बन सकें। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर हम सभी को यही संकल्प लेना चाहिए।
जय हिंद, वंदे मातरम