दादी के आंचल में पलने वाले बच्चे कभी कुंठित व अवसादग्रस्त नहीं होते, उस आंचल में बच्चे ये गुण सीखते हैं...

लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
ने आज अपने लेख में
विषय बहुत ही सुंदर है, जो भी पढ़ेंगे, निश्चित रूप से अपने बच्चों के पालन पौषण में लाभ उठाएंगे। बात तो बहुत छोटी सी है लेकिन इसके मायने बहुत उच्च है, इसके भीतर संस्कारों का एक गुलदस्ता सजता हैं। मानव जीवन के निर्माण की शुरुआत तो मां के गर्भ में ही होनी शुरू हो जाता है। एक बच्चे के गर्भकाल में मातापिता के संस्कार जैसे होंगे, उनका असर आने वाले बच्चे के जीवन पर अवश्य पड़ेगा। उसके बाद जब एक बच्चे का जन्म होता है तो उस बच्चे के जीवन के निर्माण में मातापिता के साथ साथ परिवार के अन्य सदस्यों के साथ साथ सबसे बड़ा योगदान दादा दादी का होता है। जब हम श्रीमद्भगवद् गीता की बात करते है तो हमे समझ आता है कि इस महान उपदेशक ज्ञान ग्रन्थ में भगवान श्री कृष्ण जी महाराज ने मानव जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए 16 अध्याय में दैवी संपद तथा आसुरी संपद का जो उपदेश अर्जुन को दिया था, वही तो एक घर में दादा दादी अपने पोता पोतियों को देने का कार्य करते हैं। मैं इस लिए श्रीमद्भगवद् गीता का जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि एक ह्यूमन जीवन में उनके विकसित होने की यात्रा शुरू होती है तो इसमें गीता के सोहलवें अध्याय का बहुत महत्व हैं।
इस अध्याय के पहले तीन श्लोक दैवी संपद से संबंधित है। ये तीनों श्लोक जीवन को सशक्त करने, मानव जीवन को संस्कारित करने, किसी भी प्रकार की विकट से विकट परिस्थितियां में किसी भी व्यक्ति सहन करने की शक्ति देते हैं, उन्हें अपने क्रोध को कैसे हैंडल करना है उसे भी सीखते है, वो बच्चे अपने व्यवहार को संतुलित करने की कौशिश करते है तथा जीवन को संस्कारित करने के लिए तैयार होते है। अब चर्चा का मुख्य विषय है कि इस सब में एक बच्चे के पालन पौषण में उनकी दादी की क्या भूमिका होती है। प्रिय साथियों! आज मुद्दा बहुत ही रोचक तथा देश के सभी बच्चों के चारित्रिक निर्माण के लिए बेहद जरूरी है। यह विषय उन पेरेंट्स के लिए अति आवश्यक है जो अपने बच्चों को उनके दादी दादी से वंचित कर देते है, उनके प्रगाढ़ स्नेह तथा उनके जीवन भर के अनुभव, संवेदनशीलता, तथा उन संस्कारों से भी वंचित कर देते है जिनसे उन बच्चों के चरित्र का निर्माण होना था। मुझे ऐसे मातापिता पर तरस आता है जो अपनी एगो तथा अपनी झूठी स्वतंत्रता के कारण अपने ही बच्चों को ऐसे संस्कारों से वंचित कर देते है, जिनसे उनको संस्कारित होना था। दोस्तो! अपने सुख के लिए अपने ही बच्चों को दादी के आंचल से दूर मत करो, क्योंकि उन बच्चों को दादी से बहुत कीमती गुण मिलने वाले है। जिन बच्चों को अपनी दादी के आंचल में बैठकर निर्भीकता मिलनी थी, हिम्मत हौंसला मिलना था, जीवन में उत्साह मिलना था, सच बोलने की शक्ति मिलनी थी, जिन्हे जीवन को कैसे विनम्रता के साथ जीना है, उसका ज्ञान मिलना था, हमारी संस्कृति का ज्ञान होना था, बड़े बुजुर्गो के साथ कैसा व्यवहार करना है, उसका भी ज्ञान होना था, बच्चों को उन्हीं के मोम डैड के बीच होने वाली तू तू मैं मैं से बचना भी सीखना है, उन्हें जीवन जीने के लिए जरूरी गुण सीखने से भी पूरी तरह से वंचित करने का कार्य मत करो। मैं यहां एक बात और कहना चाहता हूं कि एक घर में आम दादा दादी को श्रीमद्भगवद् गीता के सोहलवें अध्याय के पहले तीन श्लोक के बारे में नहीं पता है लेकिन उन्हें इतना ज्ञान जरूर है कि अच्छे संस्कार कौन से है, अच्छे गुण कौन कौन से है, जिससे उनके पोते पोतियों का जीवन सशक्त बनेगा। वर्तमान में बच्चे इतने कमजोर कैसे हो गए कि जरा जरा सी बात पर जीवन लीला समाप्त करने की बात करते है, छोटी छोटी बातों पर भड़कने लगते है, छोटी छोटी बातों पर नाराज हो जाते है, छोटी मोटी बातों की सहन करने में भी सक्षम नहीं है। इसका कारण केवल यही है कि उन बच्चों का प्रशिक्षण दादा दादी के स्नेह से दूर हुआ है, उन्होंने दादी के संस्कार तो प्राप्त किए नहीं है, सारा दिन मातापिता की झींक झींक ही सुन कर बच्चे बड़े हों रहे है। अपने बच्चों के सामने झूठ बोल रहे है, उन्ही के सामने बेईमानी की बाते करते रहते है, उन्ही के सामने उल्टी सीधी बातों के साथ गाली गलौज भी करते रहते है, उन्ही के सामने डर पैदा करने वाली बात करते है, तो बच्चे क्या सीखेंगे, यही तो सीखेंगे। अरे मैं पेरेंट्स को कहना चाहता हूँ कि अपने बच्चों के दादा दादी को अपने साथ रखने के संस्कारों को मत भूलो, वरना तुम कितने ही पैसे कमा लो, परंतु अपने बच्चों को अगर संस्कारित नहीं कर पाएं तो तुम्हारे बच्चे तुम्हे भी वैसा ही रिजल्ट देंगे। आपके बच्चों ने तो दादा दादी के साथ रहने का एहसास किया ही नहीं , तो फिर आप भी दादा दादी बनेंगे तो आपके साथ भी वैसा ही व्यवहार होगा। जो बच्चे खुद के लिए , परिवार के लिए, समाज तथा राष्ट्र के लिए सशक्त बनने थे, वो एकल परिवार का छोटा हिस्सा बनकर रह गए, उनकी पर्सनिटी संकीर्ण रह गई, जिसको हमारे बुजुर्ग एकलखुरा कह कर पुकारते थे। जिन बच्चों को राष्ट्र के पुत्र पुत्री बनना था, उन्हें अकेला रहने का अभ्यास करा कर बहुत छोटा तथा बोना बना दिया गया। खैर, अब मैं अपने मुख्य विषय पर आ रहा हूं, दोस्तो जो भी मातापिता है उन्हें अपनी सोच को थोड़ा ऊंचा उठाने की जरूरत है, अपने विचारों को थोड़ा नकली प्लेजर से ऊपर उठाने की जरूरत है। जब बच्चे अपने दादी के आंचल में पलते है तो वहां वो एक दादी की पाठशाला में निर्भय होने का अनुभव करते है। उस आंचल में बच्चे कुछ विशेष गुण सीखने का अवसर मिलते है, जैसे ;
1. बच्चे अपनी दादी के आंचल में बड़े बुजुर्गो की इज्जत करना सीखते हैं।
2. बच्चे उस आंचल में वीर बनने की कला सीखते हैं।
3. बच्चे उस आंचल में जीवन जीने का कौशल सीखते हैं।
4. उस आंचल में बच्चे जीवन के लिए जरूरी 26 दैवी संपद भी सीखते हैं।
5. दादी के उस आंचल में बच्चे अपने मातापिता के जीवन के महत्व को समझते है।
6. उस आंचल में बच्चे अपने परिवार के मूल्यों, समाज की महत्ता, तथा राष्ट्र के गौरव को समझते है।
7. उस आंचल में बच्चे खुद को समाज के साथ तथा राष्ट्र के साथ सामंजस्य बैठकर जीने की कला भी सीखते है।
8. उस आंचल में बच्चे जीवन की हर परिस्थितियों तथा हर प्रकार की चुनौतियों से लड़ने की स्किल सीखते हैं।
9. दादी के उस आंचल के विश्वविद्यालय में बच्चे विनम्रता सीखते है, संवेदना, न्याय, निष्पक्षता, तथा सत्य व ईमानदारी सीखते हैं।
10. दादी के उस आंचल में बच्चे सभी के साथ बिना भेद भाव के जीने का प्रशिक्षण लेते है।
11. दादा दादी अपनी तरह की नैतिकता पढ़ाने वा सिखाने वाला विश्वविद्यालय है, जहां पोते पोती नैतिकता का व्यवहार सीखते हैं तथा वहां बच्चे अपने मन की बात करने की हिम्मत वा उत्साह सीखते है। वह किसी से भी इंटरेक्ट करने की भी ट्रेनिंग लेते है। उनके भीतर ह्यूमैनिटी डेवलप होती है।
12. दादी के आंचलिया विश्वविद्यालय में उनके पोते पोतियों को प्रकृति के साथ तथा अन्य जीव जंतुओं के साथ जीने का अनुभव प्राप्त होता हैं।
जब घर के बच्चे दादी के आंचल में पलते है तो वो नैतिक रूप से सशक्त होते है। अगर अपने बच्चों को दैवी संपद में निपुण करना है तो उनके मातापिता को अपने मातापिता अर्थात बच्चों के दादा दादी का सम्मान करना पड़ेगा। बच्चों को सत्य, ईमानदारी, निर्भीकता, अभय, संवेदना,करुणा, मेहनत तथा आशावादी बनना सिखाना है तो उनमें सात्विक उत्साह भरने के लिए हर दिन अभ्यास कराना होगा, जिससे वो निराशा से, अवसाद से बच सकें। दादी के आंचल में बच्चे बहादुर बनते है,वो हर प्रकार की चुनौती से लड़ना सीखते है। उनके जीवन में हतोत्साहन नहीं होता। वो जीवन में शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से इतने सशक्त हो जाते है कि जीवन में कुंठा उनके आसपास भी नहीं फटकती हैं तथा सदैव उत्साह से जीवन को आनंदमय बनाते है।
जय हिंद, वंदे मातरम