मैं दिखावे का धार्मिक हूँ क्योंकि मैने धर्म के लक्षणों का पालन करने में महारत हासिल नहीं की है अभी।
I am religious only in appearance because I have not yet mastered the art of following the characteristics of religion
mahendra india news, new delhi
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
"धर्मों धार्यति प्रजा:" अर्थात धर्म में ही धारण करने की क्षमता है, धर्म ही प्रजा का धारण करता है, या धर्म में ही समाज को सस्टेन करने की शक्ति है। धर्म ही ह्यूमन बीइंग का संरक्षण करता है, क्योंकि मनुष्य के हर कार्य के लिए धर्म निर्धारित है, उसी अनुरूप कर्म करने पड़ते है तभी धर्म मानव मात्र की रक्षा करता है। "धर्मों रक्षति रक्षित:" अर्थात जो धर्म के अनुसार कर्म करते है धर्म उन्ही की रक्षा करता है। कुछ महानुभावों ने इसका भी अर्थ पाखंड पूर्ण कर दिया है कि जो धर्म की रक्षा करेगा, धर्म उसकी रक्षा करेगा, अरे धर्म कोई ऑब्जेक्ट नहीं है, कोई वस्तु नहीं है,
इसे समझने के लिए ज्ञान प्राप्त करें। अब तो बिना ज्ञान प्राप्त किए हुए ही चारों ओर धर्म की बाढ़ सी आ रही है, अनपढ़ लोग जिन्होंने ना तो वेद पढ़े, ना उपनिषद पढ़े है, ना ही दर्शन पढ़े है, ना ही श्रीमद्भगवद् गीता का अध्ययन किया है और ना वो कभी गुरुकुल गए हैं तथा वही धर्म का प्रचार कर रहे है। धर्म का अर्थ ऐसे हो गया जैसे धर्म कोई चोला है जिसे पहनते ही धार्मिक बन जाते है, ऐसे है जैसे धर्म एक पहनावा है, एक वस्त्र है या कोई वस्तु है, जिसे धारण करते ही धार्मिक हो जाएंगे। ऐसा नहीं है और इसी लिए मैं अभी तक धार्मिक नहीं हो पाया हूँ
क्योंकि मैने वेदों को पढ़ना तो शुरू किया है परंतु अभी तक पूरे नहीं पढ़ पाया हूँ, मैने श्रीमद्भगवद् गीता का अध्ययन तो शुरू किया है लेकिन अभी तक भी उसमें दी गई शिक्षा पर चल नहीं पा रहा हूँ इसी लिए मैं धार्मिक नहीं बन पाया हूँ, मैने उपनिषदों का ज्ञान लेने की प्रक्रिया शुरू की है परंतु अभी भी अज्ञानी हूँ इसी लिए मैं धार्मिक नहीं हूँ, मैने महर्षि दयानंद जी सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश जैसे ग्रन्थ को पढ़ा तो है लेकिन पालन नहीं कर पा रहा हूँ, इसी लिए मैं धार्मिक नहीं हूँ। मैं धर्म के लक्षणों का पालन करने का यत्न तो कर रहा हूँ लेकिन अभी भी अधूरा है,
इसी लिए मैं धार्मिक नहीं हुआ हूँ। धर्म के दस लक्षणों के राह पर चलना शुरू तो किया है परंतु दस प्रतिशत भी पूरा करने में असमर्थ हूँ, इसी लिए मैं स्पष्ट रूप से कह सकता हूँ कि अभी भी धार्मिक नहीं हो पाया हूँ। "धृति क्षमा दमोंअस्तेयम शौचम इंद्रियानीगृह। धीर्विद्या, सत्यम, अक्रोधो दशकम धर्म लक्ष्मणम् "। अर्थात जिनके पास धैर्य, क्षमाशीलता, दम, चोरी न करना, विद्या, बुद्धि, सत्य, अक्रोध, शुचिता तथा इंद्रिय निग्रह या अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है वहीं धर्म के लक्षण है। अब कोई भी व्यक्ति खुद का इस आधार पर आंकलन कर सकते है, कि वो कितने बड़े धार्मिक है। ये तो भाई अष्टांग योग के केवल दो ही अंग है यम और नियम, जिनके पालन से हम धार्मिक होने की पहली सीढ़ी पार कर पाएंगे।
धर्म और अध्यात्म में बहुत बड़ा अंतर है, क्योंकि अध्यात्म में अष्टांग योग के बाकी के छह अंग भी शामिल है। युवा दोस्तो, मै बड़ी ईमानदारी से कह सकता हूँ कि मैं सत्य बोलने में अपूर्ण हूं, मैं क्रोध पर काबू नहीं कर पाया हूँ, मै काम वासना पर पूर्णरूपेण नियंत्रण करने में अक्षम हूँ , मै अपने जिव्हा स्वाद पर भी काबू नहीं पाया है, मै अपनी बुद्धि को विस्तार नहीं दे पाया हूँ, मैने अपने कंफर्ट जोन को छोड़ने में भी अपूर्ण हूं, ईमानदारी भी पूर्ण रूप से मेरे जीवन में नहीं आई है, इसी लिए मैं धार्मिक नहीं हूँ। युवा दोस्तों, योग जीवन जीने की कुंजी है इसे अपनी जीवन शैली में धारण करना सीखो।
क्या कलरफुल वस्त्र धारण करने से कोई धार्मिक हो जाएगा, कोई विभिन्न प्रकार के पाखंड करने से धार्मिक हो जाएंगे, क्या मस्तक पर चंदन लगाने या सिर पर टोपी धारण करने से या पांच कका को शरीर पर धारण करने से ही हम धार्मिक हो जाएंगे, क्या हम अगरबत्ती या मोमबत्ती जलाने मात्र से धार्मिक हो जाएंगे, नहीं बिल्कुल नहीं हो पाएंगे क्योंकि हम धर्म के लक्षणों का पालन करने की ओर हमने चलना भी नहीं शुरू नहीं किया है, फिर कैसे धार्मिक हो जाएंगे? जीवन शैली को यौगिक बनाओ, जिससे हम धार्मिक बनने के रास्ते पर अग्रसर हो सकें। दुनिया में अधिकतर महानुभाव तो पाखंड फैलाने में ही लगे है। आपको पूजा पाठ, नमाज, प्रार्थना या पाठ से तभी लाभ होगा, जब आप जीवन में सत्य, क्षमाशीलता, अस्तेय,संग्रह, इंद्रियों को नियंत्रण करना सीखेंगे। हम तभी धर्म की ओर उन्मुख होंगे, जब हम क्रोध पर नियंत्रण करना सीखेंगे, अपनी बुद्धि को तर्कशील बनायेंगे, हम खुद को ज्ञान के उजाले से सजाएंगे, तभी तो हम धर्म के रास्ते पर चलना सीखेंगे। अरे दुनिया भर के पाखंड, प्रपंच, षडयंत्र करते हो और कहते हो कि हम धार्मिक है।
अरे पहले अपने शास्त्रों को पढ़कर इस बुद्धि को तर्कशील बनाओ, प्रश्न करना सीखो, मानना नहीं जानना सीखो, तभी तो तुम्हारी बुद्धि खुलेगी। चाहे कोई कितना भी बहकावे, लेकिन बिना पढ़े तुम्हे कोई भी शक्ति परीक्षा में पास नहीं कर सकती है। चाहे कोई कितने ही व्रत बता दे, चाहे कोई कितने ही पैदल चलवा ले लेकिन तुम परीक्षा में पास नहीं हो पाएंगे, हां पैदल चलने से स्वास्थ्य तो अच्छा हो सकता है लेकिन परीक्षा में पास होने के ये लक्षण नहीं है। कोई कथा वाचक या तथाकथित ज्ञानी कह रहा हो, कि भले ही कोई विद्यार्थी वर्ष भर बिल्कुल ना पढ़ा हो, वो भी अगर अपनी किताब में मोरपंख रख दे, बेल पत्र रख ले और एग्जाम देने जाते समय दही और चीनी मिला कर खाकर जाएंगे तो परीक्षा में पास हो जाएंगे। यह कितनी बचकानी बाते है, ऐसी ऐसी बात करने वालों की। अरे कब तक बहकाएंगे लोगों को, अरे महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने अपना जीवन दे दिया लोगों को जगाने के लिए, फिर भी हम इतनी विक्षिप्तता में क्यों जी रहे है यही समझ नहीं आता है। हमे योग दर्शन से कुछ तो सीखना चाहिए,
जो महर्षि पतंजलि महाराज ने दिया है। उन्होंने कहा है कि " अथ योग अनुशासनं" अर्थात योग अनुशासन का विषय है। इसका क्या अर्थ है कि जीवन ज्ञान और अनुशासन से चलता है। ज्ञान प्राप्त करना पहला कार्य है, उसके बाद उसे अनुशासन के द्वारा व्यवहार में उतारना है। यहां कोई भी दिखावा या पाखंड का विषय है ही नहीं, अगर शरीर को स्वस्थ रखना है तो योग का सहारा लेना पड़ेगा। योग अनुशासन तथा मेहनत का विषय है, यही नियम तो किसी भी परीक्षा में लागू होता है, फिर हमारे कथावाचक क्यों हमारी युवा पीढ़ी को अकर्मण्यता की ओर धकेल रहे है। यही बात तो युवा पीढ़ी को भी समझने की जरूरत है कि वो ध्यान दे कि बिना मेहनत के खेत में अन्न नहीं उगाया जा सकता है, बिना मेहनत के खेलों में गोल्ड मेडल नहीं जीते जा सकते है। इसी प्रकार बिना मेहनत के कोई भी परीक्षा पास नहीं हो सकती है।
मैं यहां दो बाते राष्ट्र को ध्यान में रखकर कहना चाहता हूँ कि अगर कोई भी व्यक्ति हमारी युवा पीढ़ी को निकम्मा बनाने का कार्य कर रहे है तो वो देशभक्त नहीं हो सकता है, जो युवा पीढ़ी को पाखंड में धकेल रहे है , वो देशभक्त या धार्मिक नहीं हो सकते है। अगर हमारी युवा पीढ़ी बिना मेहनत के ही कुछ प्राप्त करने की इच्छा रखेगी तो फिर राष्ट्र का भला नहीं होगा, क्योंकि राष्ट्र को अनुशासित वा कर्मठ तथा तर्कशील युवाओं की फौज की जरूरत है। मैं यही तो स्पष्ट करना चाहता हूँ कि धार्मिक होना बहुत मुश्किल है, हां कर्मकांडी होना तो आसान है लेकिन उससे ना युवा पीढ़ी का भला नहीं होने वाला है और ना ही राष्ट्र का भला होने वाला है। भारत की युवा पीढ़ी को ऐसे महानुभावों से सचेत रहने की जरूरत है जो उन्हें निष्क्रिय बनाने का खेल खेलते है और कर्मकांड में उलझा देते है। इस लेख के माध्यम से मैं युवाओं को कहना चाहता हूँ कि अगर आप धार्मिक बनना चाहते हो तो योग का अभ्यास करें, ताकि हम मानसिक रूप से सशक्त बने और धर्म के लक्षणों को जीवन में धारण कर सकें। धर्म कोई वस्तु नहीं है जिसकी रक्षा इंसान कर सकता है,
जय हिंद, वंदे मातरम
