आर्ट ऑफ लिस्निंग व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण आयाम है, इसे विद्यार्थियों को सीखना होगा

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  आर्ट ऑफ लिस्निंग व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण आयाम है, इसे विद्यार्थियों को सीखना होगा
mahendra india news, new delhi

लेखक
नरेंद्र यादव 
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ एंपावरमेंट मेंटर
जीवन में कोई भी अगर सफलता, प्रसन्नता या सेल्फ एस्टीम चाहते है तो इसका आधार सुनने की कला होती है। विद्यार्थी जीवन में तो " आर्ट ऑफ लिस्निंग" बेहद महत्वपूर्ण होती है। जीवन में जितने भी लाभ हानि होती है वो सही ना सुनने या सही सुनने वा सही ना बोलने के कारण होती है। यहां अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जब हम किसी को बिना सुने ही बोलने की कोशिश करते है तो कोई भी बोलने में चूक करेगा। इसी से बचने के लिए ही आर्ट ऑफ लिस्निंग की जरूरत हैं। आजकल की नई पीढ़ी के साथ ये ही प्रॉब्लम है कि उनमें सुनने की क्षमता ही नहीं है, या तो सुनेंगे ही नहीं, या फिर आधा अधूरा सुनकर ही रिएक्ट करने लगते है।
 समाज में, परिवार में एक्शन की बजाय रिएक्शन अधिक होने लगा है। लोगों में पता नहीं किस बात की जल्दी है, सुनना तो मानो बहुत बड़ा टास्क हो गया है। मेरा ऐसा मानना है कि बिना सुने किसी का भी व्यक्तित्व निखर ही नहीं सकता है क्योंकि बिना सुने निर्णय लेने की क्षमता विकसित नहीं होती, बिना सुने अंडरस्टैंडिंग डेवलप नहीं होती है, बिना सुने किसी समस्या का समाधान नहीं निकलता है। जीवन में अगर संपूर्णता प्राप्त करनी है तो सुनना ही होगा, सुनने की आर्ट विकसित करनी पड़ेगी। यहां सुनना शब्द सुनने के कई आयामों को परिभाषित करता है यही तो खूबी है हिंदी भाषा की। जैसे अंग्रेजी में इसी शब्द के लिए हियरिंग, लिसनिंग, इफैक्टिव लिस्निंग अलग अलग आयामों के लिए उपयोग किए जाते है। सुनने का अर्थ होता है किसी को अपना समय देना। जब हम हियरिंग की बात करते है तो केवल कानों में पड़ने वाली बात होती है, जब हम लिस्निंग की बात करते है तो रुक कर सुनने को कहते है और जब इफेक्टिव लिस्निंग की बात को तो अपना समय देकर सब कुछ छोड़ कर केवल सुनना होता है और उसी  श्रवण की बात हम कर रहे है। संस्कृत में जिसे श्रुणू कहते है।


 जिसने सुनना सीख लिया, मानो उसने अपने व्यक्तित्व को गढ़ लिया है, उसने जीवन की एक बड़ी जंग जीत ली। सुनना ना केवल एक कला है बल्कि धैर्य भी है, पेशेंस भी है। बहुत बार हम ना सुनने की वजह से कितनी ही समस्याओं का सामना करते है, फिर कहते है कि काश मैने पहले सुन लिया होता, तो ऐसा नहीं होता। यहां मैं बच्चों को कहानियां सुनाने का दौर इसी लिए याद कर रहा हूं कि वो केवल कहानी कहना सुनना नहीं था, बल्कि वो बच्चों में सुनने की कला विकसित करना भी था। आज भी हम देखते है कि बड़े बुजुर्ग लोग एक ही बात को बार बार कहते है, क्यों ऐसा क्यों है, उनको भी पता है कि हम ये बात पहले कह चुके है, बता चुके है परंतु फिर भी उसे दोहराने का मकसद यही होता है कि समझ बढ़े, सुनने की क्षमता बढ़े। और हम नादान सोचते है कि बुजुर्गो को ध्यान नहीं रहता है। सुनने की कला को विकसित करने हेतु हम यहां कुछ विशेष बिंदुओं पर विमर्श करते है, जो विद्यार्थियों को विशेष अवसरों की पहचान करने में सहायक होंगे, जैसे :
1. लेज़र लिस्निंग 
2. मनोरंजक लिस्निंग 
3. लर्निंग लिस्निंग 
4. इफेक्टिव लिस्निंग 
5. आदेशात्मक लिस्निंग 
6. लिस्निंग ऑफ रिस्पेक्ट
7. प्रश्नात्मक लिस्निंग 
सुनने की ये सात परिस्थितियों का अध्ययन करना चाहिए। सभी परिस्थितियों का ध्यान करना इसलिए जरूरी है क्योंकि इन्हीं के अनुसार हमारे विद्यार्थियों के जीवन के निर्णय तय होते है, इन्हीं के अनुसार विद्यार्थियों में मेहनत करने की लालसा पैदा होती है, इन्ही से ही विद्यार्थियों में मनन व मंथन तय होता है, इससे ही विद्यार्थियों की पर्सनेलिटी बनती है, इसी से उनके भीतर आत्म सम्मान तथा आत्म जागरूकता पैदा होती है। यहां हम संक्षिप्त में इन सातों परिस्थितियों के विषय में समझ लेते है जैसे लेजर लिसनिंग का अर्थ है कि आराम से पड़े पड़े सुनना, उसमे कुछ बाते कानों में जाती है, कुछ नहीं जाती है। मनोरंजक लिस्निंग में हम कोई भी बात मनोरंजन के लिए सुनते है, इसमें किसी की रुचि है किसी की नहीं होती है, कुछ इफेक्टिव भी हो सकती है अथवा हियरिंग भी हो सकती है। सीखने के लिए सुनना, लर्निंग लिस्निंग कहलाती है, जैसे स्कूल, कॉलेज या किसी भी शिक्षण संस्थान में कक्षाओं में सुनना। प्रभावी लिस्निंग से मतलब है जब विद्यार्थी किसी प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा की तैयारी करते है और किसी शिक्षक से पढ़ते है या फिर माता पिता की कुछ जीवन गढ़ने वाली बात सुनते है। आदेशात्मक लिस्निंग का अर्थ है कि विद्यार्थी अपने टीचर्स, मातापिता तथा टीचर्स की बात कहना मानने के लिए सुनें। प्रश्नात्मक लिस्निंग का मतलब है कि हम छोटे बच्चों की बात इसलिए सुने क्योंकि वो हमसे कोई प्रश्न पूछ रहे है, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। विद्यार्थी जीवन क्योंकि सीखने के लिए होता है इसलिए विद्यार्थियों को अपने सुनने की कला को बेहतरीन करने के लिए तैयारी करनी चाहिए। सुनना समय की बर्बादी नहीं है बल्कि समय का बेहतरीन उपयोग है। देखना, पढ़ना, तथा सुनना यही तो जीवन को आगे बढ़ने में मदद करते है। विद्यार्थियों को सुनने के मामले में कभी भी इगो नहीं रखनी चाहिए। सुनना ही सीखना है। अब हम सुनने की कला को विकसित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार करते है, जैसे :
1. हर दिन एक घंटा सुनने के लिए निकाले, जिसमें कहानियां, इतिहास, भौगोलिक स्थितियों, स्वतंत्रता संग्राम, अपने परिवारिक महानुभावों के बारे में किसी बड़े से, टीचर्स से, विद्वान से सुनें।
2. जब सुनने के लिए बैठे तो बीच में ना बोले, केवल सुनें।
3. आम से आम लोगों को सुनना सीखें, उनकी बातों को गौर से सुनें।
4. जरूरत मंद लोगों की सुनना सीखें।
5. कक्षा में केवल सुने, अगर प्रश्न पूछने की आवश्यकता हो तो बाद में प्रश्न करें, परंतु बहुत ही विनम्रता के साथ।
6. मातापिता को शांत भाव से सुनने का अभ्यास करें, बीच में ना टोके। 
7. छोटे बच्चों को तथा उनके बचपन के प्रश्न को सुनने में रुचि विकसित करें।
8. जीवन में मातापिता, टीचर्स, गुरु, तथा बड़ों से बहस ना करें, केवल सुने और अमल करें।
9. बोलते समय समूह के नियमों का पालन करना सीखें।
10. सुनते वक्त रिस्पॉन्स भी करना सीखें, ये नहीं कि बुत बनकर खड़े रहे या बैठे रहें। यहां कहने वाले का सम्मान भी करना महत्वपूर्ण है।
11. समूह चर्चा में अपने बारी का इंतजार करना सीखें। किसी की बात को काटना मूर्खता मानी जाती है।
12. सुनते वक्त मोबाइल को छुएं भी नहीं, इधर उधर ना देखें, बातों पर ध्यान देने का अभ्यास करें।
13. मातापिता , टीचर्स या बड़ों को बातों को इग्नोर न करें, उनकी एक आवाज पर सचेतनता दिखाएं।
14. अपने वातावरण की ध्वनियों के प्रति सचेत रहना सीखें, और उनके अर्थ के प्रति समझ विकसित करें।
15. सुनना भी है परंतु विनम्रता के साथ सुनना है, कोई किसी पर एहसान नहीं करना है।
16. सुनने में, कहने वाले को सम्मान भी देना सीखें, इग्नोरेंस की सोचें भी नहीं।
  हम सभी देखते है, सुनते भी है कि ईश्वर ने हमे सुनने के लिए दो कान दिए है, तथा बोलने के लिए एक ही मुंह दिया है, इसलिए हम सभी को विशेष तौर पर विद्यार्थियों को बोलने से अधिक विनम्रता से सुनना है और अपने व्यक्तित्व को गढ़ना है। सुनने की कला विकसित करना, जीवन में सफलता और प्रसन्नता देने में सहयोग ही नहीं, बल्कि सुनिश्चित करता है।
जय हिंद, वंदे मातरम